व्यापार ब्यूरो | मुंबई/ नई दिल्ली 3 नवंबर 2025
हेडलाइन मैनेजमेंट का नया सूपरहिट शो
भारत में आर्थिक अपराधों के खिलाफ कार्रवाई का खेल अब इतना पुराना हो चुका है कि जनता को उसकी स्क्रिप्ट पहले से याद है। यह स्क्रिप्ट कुछ यूँ चलती है — पहले सरकार अपने पसंदीदा उद्योगपतियों को कर्ज, टैक्स लाभ, रियायतें और “इकोनॉमिक पैकेज” का पहाड़ सौंपती है; फिर यह उद्योगपति बिना हिसाब-किताब के घाटे में डूबने का नाटक करते हैं; और अंत में सरकार नाटकीय प्रेस कॉन्फ्रेंस कर जनता को बताती है कि उसने अपराधियों को पकड़ लिया है — भले ही पकड़ती सिर्फ जेब में रखी छुट्टियाँ! यही कहानी अनिल अंबानी जैसी हस्ती पर लागू होती है, जिन पर लगभग 50,000 करोड़ रुपये बकाया हैं — वह भी जनता की जेब से निकला हुआ पैसा। फिर भी सरकार ने जो कार्रवाई दिखाई, वह सिर्फ 3,000 करोड़ की संपत्ति जब्ती के रूप में आई। अब इसे अगर “सख्त कार्रवाई” कहा जाए, तो आम आदमी को क्या कहने दिया जाए? शायद सरकार सोचती है कि जनता बेवकूफ है — न आँकड़ा पूछेगी, न सवाल उठाएगी, बस टीवी पर चलती सुर्खियाँ देखकर खुश हो जाएगी। यह घटना हमें बताती है कि भारत में कानून की तलवार गरीबों पर धारदार और अमीरों पर बोथरी होती है।
और यह सब संयोग नहीं है, यह सत्ता और उद्योग के गठजोड़ की योजनाबद्ध व्यवस्था है। कोई आम आदमी बैंक से 5 लाख का कर्ज ले और किसी मजबूरी में न चुका पाए तो बैंक उसके घर की छत, बच्चों की किताबें, बुजुर्गों के बिस्तर तक ले जाने लगता है। लेकिन बड़े नामों के पास विकल्प होते हैं — विदेश भाग जाओ, दिवालिया घोषित हो जाओ, निजी जेट में उड़ो, यॉट पर पार्टियाँ करो और अंत में शान से कह दो कि “हाथ ख़ाली हैं!” यह कैसा न्याय है जहाँ उस देश में रहने वाले गरीब टैक्स देते-देते थक जाते हैं, लेकिन देश की संपत्ति ख़ुद को “धनकुबर” कहने वालों की जेब में जाती रहती है? यह कैसा सिस्टम है जिसमें सफलता का पैमाना मेहनत नहीं, सत्ता से नज़दीकी है? ऐसा लगता है मानो भारत में एक नया संविधान लिखा जा चुका है:
“धन से बड़ा धर्म है — और दोस्ती उससे भी बड़ा।”
यहाँ सबसे रोचक और खतरनाक पहलू है हेडलाइन मैनेजमेंट — जहाँ सरकार असल काम कम और प्रचार ज़्यादा करती है। जैसे ही संसद में विपक्ष सरकार को घेरने की तैयारी करता है, अचानक ED और CBI के “शेर” दहाड़ने लगते हैं, प्रेस नोट जारी होते हैं और टीवी पर प्राइम टाइम की चीख पुकार शुरू। जबकि आँकड़ों का सच यह बताता है कि बड़े आर्थिक अपराधों पर सरकार की पकड़ सिर्फ मीडिया के फ्रेम में टंगी तस्वीर है, हकीकत में हवा। आज जनता पूछती है — “क्या ED और CBI की दहाड़ सिर्फ सत्ता के दुश्मनों के लिए आरक्षित है?” क्योंकि सरकार के दो सेट हैं:
- एक सेट उनके लिए जो विपक्ष में हैं — जिन पर कार्रवाई का भूकंप आता है
- दूसरा सेट उनके लिए जो सत्ता के दोस्त हैं — जिन पर सिर्फ हवा चलती है
देश में अब सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि क्या कानून का एक ही तराजू सबके लिए है? या फिर सत्ता ने तराजू के दोनों पलड़ों का अलग-अलग उपयोग तय कर लिया है — एक पलड़ा चुने हुए पूँजीपतियों के लिए और दूसरा आम जनता के लिए। सरकार को समझना चाहिए कि यह नई पीढ़ी सिर्फ नारे और भाषण नहीं निगलती — यह लैपटॉप पर आँकड़े पढ़ती है, इंटरनेट पर तथ्य खोजती है, और समझ जाती है कि किसकी जेब में पैसा गया और किसकी आँख में धूल झोंकी गई। लोकतंत्र में पारदर्शिता दिखावे से नहीं, हिसाब से आती है — और यह देश अब हिसाब मांग रहा है।
निष्कर्ष एकदम स्पष्ट है:
- भारत में जितना बड़ा घोटाला, उतनी बड़ी सुरक्षा।
- जितना बड़ा पूँजीपति, उतनी हल्की सज़ा।
- जितना बड़ा मित्रता तंत्र, उतनी ज़ोरदार मार्केटिंग।
देश में आज सत्ता के गलियारों में नया फॉर्मूला चलता है — “माल आप उड़ाओ… सुर्खियाँ हम संभाल लेंगे!” और इस खेल में हारती सिर्फ जनता है — उसका भविष्य, उसका पैसा और उसकी उम्मीदें। अब यह निर्णय देश को लेना है कि वह और कितनी देर तक इस ठगी को “हेडलाइन की जीत” समझता रहेगा।





