नई दिल्ली, 3 नवंबर
देश की सर्वोच्च अदालत ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि केवल शादी से इनकार कर देना आत्महत्या के लिए उकसाने (Abetment to Suicide) का अपराध नहीं माना जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हर व्यक्ति को अपने जीवन और रिश्तों के बारे में स्वतंत्र निर्णय लेने का मौलिक अधिकार है, और यदि कोई व्यक्ति किसी असंतोष या व्यक्तिगत कारणों से विवाह करने से इंकार करता है, तो इसे अपराध के दायरे में नहीं घसीटा जा सकता।
यह फैसला उस मामले पर आया, जिसमें एक महिला ने एक युवक से शादी न करने का निर्णय लिया था, जिसके बाद युवक ने आत्महत्या कर ली। युवक के परिवार ने महिला पर आरोप लगाया कि उसके इनकार की वजह से उसने यह चरम कदम उठाया। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने न केवल इन आरोपों को खारिज किया बल्कि यह भी साफ कहा कि किसी का जीवन या मृत्यु दूसरे की व्यक्तिगत पसंद पर निर्भर नहीं हो सकती। अदालत ने कहा कि आत्महत्या एक “व्यक्ति का स्वयं लिया गया निर्णय” है और इसे किसी की स्वतंत्र पसंद को अपराध में बदलकर व्याख्यायित नहीं किया जाना चाहिए।
न्यायालय ने अपने फैसले में यह भी कहा कि रिश्तों में असहमति, भावनात्मक टूटन और मानसिक तनाव भले ही दुखद हों, लेकिन कानून की नजर में “उकसावे” की परिभाषा कहीं अधिक गहरी और संरचित है। किसी को आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप तभी सिद्ध होगा जब आरोपी द्वारा जानबूझकर ऐसे कृत्य या शब्द कहे गए हों, जिनका सीधा और मजबूत संबंध आत्महत्या से स्थापित हो सके। कोर्ट ने चेताया कि कानून का गलत उपयोग समाज में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और रिश्तों की प्राकृतिक जटिलता को क्रिमिनलाइज कर सकता है।
इस फैसले को न्यायविद और सामाजिक विशेषज्ञ बेहद संतुलित और आधुनिक दृष्टिकोण वाला करार दे रहे हैं। भारतीय समाज में रिश्तों को लेकर भावनात्मक दबाव आम है — प्रेम प्रस्ताव का ठुकराना, मनचाही शादी का न होना, या पारिवारिक असहमति — अक्सर लोग इन्हें जीवन-मृत्यु का मुद्दा बना लेते हैं। कोर्ट का यह निर्णय साफ संदेश देता है कि व्यक्तिगत भावनाओं के नाम पर कानून का दुरुपयोग नहीं होने दिया जाएगा।
सर्वोच्च अदालत ने इसे अवसर मानते हुए यह भी दोहराया कि समाज को मानसिक स्वास्थ्य को गंभीरता से लेना चाहिए, खासकर युवाओं के बीच बढ़ती आत्महत्या की घटनाओं को देखते हुए। रिश्ते टूटना दुखद हो सकता है, लेकिन जीवन उससे कहीं बड़ा है। युवा पीढ़ी को भावनात्मक सशक्तिकरण और परिवारों को सहानुभूति के साथ उनके निर्णयों का सम्मान करने की जरूरत है।
इस ऐतिहासिक फैसला ने फिर एक बार यह सिद्ध कर दिया कि मौलिक अधिकारों में “ना” कहने का भी अधिकार शामिल है। कानून का यह हस्तक्षेप रिश्तों की आज़ादी, व्यक्तिगत गरिमा और न्याय के मूल सिद्धांतों को आगे बढ़ाने वाला कदम माना जा रहा है।





