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अकोला: फसलों के नुकसान पर तीन से इक्कीस रुपये का मुआवजा — किसानों की मेहनत का मज़ाक बना सरकारी राहत तंत्र

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अकोला (महाराष्ट्र), 1 नवंबर 2025 

देश के अन्नदाता कहे जाने वाले किसानों के साथ एक बार फिर से सरकारी व्यवस्था का असंवेदनशील चेहरा सामने आया है। महाराष्ट्र के अकोला जिले में हाल ही में फसलों के नुकसान के लिए दिए गए मुआवजे की रकम सुनकर हर कोई दंग रह गया। कई किसानों को जहां तीन रुपये, तो कई को सिर्फ इक्कीस रुपये तक का मुआवजा दिया गया है। यह रकम उस मेहनत, उम्मीद और पसीने का अपमान है, जिसे किसान सालभर खेतों में बहाते हैं। जिन फसलों को ओलावृष्टि और अनियमित बारिश ने तबाह कर दिया था, उनके नुकसान का आंकलन करने वाली सरकारी मशीनरी ने मानो किसानों की पीड़ा पर तंज कसा हो।

किसानों के मुताबिक, उन्होंने अपनी सारी पूंजी फसलों में झोंक दी थी। बीज, खाद, कीटनाशक और बिजली बिल के बढ़ते बोझ के बीच जब फसलें बर्बाद हुईं, तो उम्मीद थी कि सरकार कम से कम राहत राशि देकर उन्हें फिर से खेती करने का हौसला देगी। लेकिन जब मुआवजे के नाम पर उनके बैंक खातों में कुछ रुपयों की रकम पहुंची, तो पूरे गांव में गुस्से की लहर दौड़ गई। कई किसानों ने कहा कि “तीन रुपये में तो अब एक बीड़ी भी नहीं आती, सरकार ने हमारी हालत का मज़ाक बना दिया है।” अकोला, बालापुर, मुरटिज़ापुर और बार्शी टाकली तहसीलों के कई गांवों में किसानों ने प्रशासन के खिलाफ विरोध दर्ज कराया और मुआवजा तय करने की प्रक्रिया पर सवाल उठाए।

स्थानीय किसान संगठनों ने इसे “कृषि नीति की विफलता” बताया है। उनका कहना है कि सरकार के पास सटीक आंकलन प्रणाली नहीं है और ग्रामस्तर पर नियुक्त अधिकारी अक्सर बिना वास्तविक सर्वे किए ही रिपोर्ट जमा कर देते हैं। नतीजा यह होता है कि जिन किसानों की फसल पूरी तरह नष्ट हो जाती है, उन्हें नाममात्र की सहायता मिलती है, जबकि कुछ प्रभावशाली किसान अपेक्षाकृत बेहतर मुआवजा ले जाते हैं। किसानों का आरोप है कि प्रशासनिक लापरवाही और भ्रष्ट तंत्र ने उनकी ज़िंदगी को हताशा में धकेल दिया है।

अकोला जिला प्रशासन का कहना है कि यह मुआवजा ‘प्रथम चरण’ का भुगतान है, और आगे की जांच के बाद वास्तविक हकदारों को समुचित राशि दी जाएगी। हालांकि किसान इस सफाई से संतुष्ट नहीं हैं। उनका कहना है कि जब तक सर्वेक्षण की पारदर्शी और जवाबदेह प्रणाली नहीं बनेगी, तब तक हर साल इसी तरह का अपमान दोहराया जाएगा। एक किसान ने नाराज़गी जताते हुए कहा, “हमारी मेहनत की फसल बर्बाद हुई, बिजली के बिल बकाया हैं, बैंक लोन चढ़ा है, और सरकार हमें तीन रुपये दे रही है — क्या यही न्याय है?”

राज्य के विपक्षी नेताओं ने भी इस मामले को लेकर सरकार पर हमला बोला है। उन्होंने इसे “शर्मनाक और असंवेदनशील रवैया” करार देते हुए कहा कि यह मुआवजा नहीं, बल्कि किसानों के साथ मज़ाक है। नेताओं ने मांग की है कि सभी जिलों में हुए फसल नुकसान का पुनः सर्वे कराया जाए और प्रत्येक किसान को न्यूनतम ₹25,000 प्रति हेक्टेयर की दर से मुआवजा दिया जाए। इसके अलावा, जिन किसानों को अपमानजनक रूप से कुछ रुपये ही दिए गए हैं, उन्हें तुरंत पुनः भुगतान की प्रक्रिया में शामिल किया जाए।

यह घटना सिर्फ एक जिले की कहानी नहीं है, बल्कि यह पूरे देश की कृषि व्यवस्था का आईना है। जब मौसम की मार, बढ़ती लागत और कर्ज़ का बोझ पहले से ही किसान की कमर तोड़ रहा है, तब ऐसे मुआवजे किसानों के आत्मविश्वास को पूरी तरह चूर कर देते हैं। सरकारी योजनाओं और जमीन पर उनके क्रियान्वयन के बीच जो खाई है, वह हर बार किसान की उम्मीदों को निगल जाती है।

आज जब भारत आत्मनिर्भरता और कृषि-नवाचार की बातें कर रहा है, तब एक किसान को उसकी तबाह फसल के बदले तीन रुपये देना हमारे तंत्र की निष्ठुरता को उजागर करता है। यह सिर्फ आंकड़ों का नहीं, आदमी की मेहनत और गरिमा का सवाल है — और जब तक नीति नहीं बदलेगी, खेतों की मिट्टी से उठने वाला यह आक्रोश शांत नहीं होगा।

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