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कश्मीर के सूखे धान के खेत: बारिश की कमी और गर्मी ने कृषि व्यवस्था को पहुंचाया संकट के कगार पर

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कश्मीर की नाजुक कृषि अर्थव्यवस्था एक अभूतपूर्व जलवायु संकट के सामने घुटने टेक रही है। जून का महीना लगभग पूरी तरह बारिश के बिना गुज़र गया और इसके साथ ही घाटी की नदियां और सिंचाई नहरें सूखने लगीं। पूरे क्षेत्र में धान के खेतों पर इसका सीधा प्रभाव पड़ा है — कभी हरियाली से लहराते खेत अब दरारों से भरी बंजर ज़मीन में तब्दील हो चुके हैं। यह संकट न केवल खेती को प्रभावित कर रहा है, बल्कि हजारों किसानों की जीविका और आने वाली फसल पर भी बड़ा खतरा बनकर खड़ा है।
दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग ज़िले के किसान मोहम्मद रमज़ान बताते हैं, “लगातार पड़ रही गर्मी ने हमारी ज़मीन को तवा बना दिया है। नहरें सूख चुकी हैं और ट्यूबवेल भी पर्याप्त पानी नहीं दे पा रहे।” यही नहीं, घाटी की मुख्य जलधारा — झेलम नदी — भी अब कई स्थानों पर घुटनों से नीचे पानी लिए बह रही है, जो कि चिंता का बड़ा विषय है।

वर्षा में भारी गिरावट, तापमान में खतरनाक वृद्धि

भारतीय मौसम विभाग (IMD) के आंकड़ों के अनुसार, 1 जून से 25 जून तक श्रीनगर में सामान्य से 65% कम वर्षा दर्ज की गई है। अन्य जिलों की स्थिति भी बेहद गंभीर है — बांदीपोरा में 71% की भारी कमी देखी गई, कुलगाम में 62%, शोपियां में 44%, बारामुला में 47%, गांदरबल में 54%, कुपवाड़ा में 36% और पुलवामा में 13% वर्षा की कमी दर्ज की गई। 30 जून को श्रीनगर में अधिकतम तापमान 34.5 डिग्री सेल्सियस रहा, जो सामान्य से लगभग 5 डिग्री अधिक था।

IMD के निदेशक डॉ. मुख्तार अहमद ने चेतावनी दी कि जब तक कोई व्यापक बारिश का दौर नहीं आता, तब तक तापमान लगातार बढ़ता रहेगा। हालांकि, उन्होंने 5 से 7 जुलाई के बीच वर्षा की संभावना जताई है, जिससे कुछ राहत मिलने की उम्मीद है।

संकटग्रस्त किसान और संघर्ष की कहानियां

पिछले महीने हैंडवाड़ा के एक किसान का वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें वह बाल्टी से खेतों में पानी डालते दिख रहा था — एक ऐसी तस्वीर जिसने इस गहराते संकट को सबकी नज़रों में ला दिया। पारंपरिक सिंचाई तंत्र असफल हो चुके हैं, और लिफ्ट इरिगेशन योजनाएं भी सूखे में बेअसर साबित हो रही हैं। पुलवामा के किसान ग़ुलाम मोहम्मद कहते हैं, “धान की नई रोपाई तो हमने कर दी थी, लेकिन अब वो सूखने लगी है। पानी नहीं होगा तो ये फसल बच नहीं पाएगी।”

बीजबेहड़ा के विधायक डॉ. बशीर अहमद वीरी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘X’ पर लिखा, “जल्द से जल्द सिंचाई नहरों के मुख्य स्रोतों का पुनरुद्धार और पुनर्संरेखण आवश्यक है। नदियों में अवैज्ञानिक खनन के कारण तली गहराई बढ़ गई है, जिससे लिफ्ट सिंचाई योजनाएं निष्क्रिय हो गई हैं। अब सूखा पंपों की तैनाती ही विकल्प है।”

फसलों का बदलाव: धान छोड़, सेब की ओर रुख

इस बार का संकट केवल मौसमी नहीं, बल्कि संरचनात्मक है। लगातार हो रहे जलवायु परिवर्तन और प्रशासनिक तैयारी की कमी ने मिलकर घाटी के कृषि भविष्य को डांवाडोल बना दिया है। यही कारण है कि अब हजारों किसान पारंपरिक धान की खेती को छोड़कर सेब बागवानी की ओर रुख कर रहे हैं, क्योंकि धान के मुकाबले इसमें पानी की कम जरूरत होती है और लाभ की संभावना अधिक है।
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 2012 में कश्मीर में 1,62,000 हेक्टेयर भूमि पर धान की खेती होती थी, लेकिन 2023 तक यह घटकर 1,29,000 हेक्टेयर रह गई — यानी एक दशक में 33,000 हेक्टेयर से अधिक भूमि ने धान को अलविदा कह दिया।
कश्मीर के लिए यह केवल एक जलवायु संकट नहीं, बल्कि एक सामाजिक और आर्थिक चेतावनी भी है। जिस भूमि ने सदियों से कश्मीरियों का पेट भरा है, आज वही भूमि पानी के बिना दम तोड़ रही है। यह समय है जब सरकार, नीति-निर्माता, और समाज मिलकर इस दिशा में ठोस कदम उठाएं — जलस्रोतों का वैज्ञानिक प्रबंधन, लिफ्ट सिंचाई योजनाओं का आधुनिकीकरण, सूखा राहत पंपों की तैनाती और किसानों को वैकल्पिक फसल प्रणाली में सहायता देना अब केवल सुझाव नहीं, आवश्यकता बन चुका है। यदि अब भी चेतना नहीं आई, तो कश्मीर का “धान्य भूमि” कहलाना भी इतिहास बन जाएगा।

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