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दीपावली पर्वों का मूल संदेश: राम से कम, कृष्ण से ज्यादा जुड़ा है प्रकृति का सम्मान

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गिरिजेश वशिष्ठ, वरिष्ठ पत्रकार 

नई दिल्ली 22 अक्टूबर 2025

दीपावली, जिसे आमतौर पर भगवान राम के अयोध्या लौटने से जोड़ा जाता है, वास्तव में अपने अधिकांश पर्वों और कथाओं में श्री कृष्ण से अधिक गहराई से जुड़ी हुई है। नरकासुर वध की कथा से लेकर धनतेरस तक के पर्वों में कृष्ण की लीलाओं का सार निहित है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण संदेश हमें अन्नकूट या गोवर्धन पूजा से प्राप्त होता है। श्री कृष्ण का संदेश एकदम साफ और क्रांतिकारी था: प्रकृति अहम है; देवताओं को पूजना छोड़ो और प्रकृति को सम्मान दो। देश के विभिन्न हिस्सों—विशेषकर राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश—में इस दिन गोबर से गोवर्धन पर्वत की आकृति बनाने की परंपरा है। कुछ लोग भगवान कृष्ण की गोवर्धन पर्वत को उठाए हुए आकृति बनाते हैं, जिसमें गायें और ग्वाले भी शामिल होते हैं। 

इस अनुष्ठान का गहरा अर्थ यह है कि कृष्ण ने अपने समय की स्थापित धार्मिक परंपरा, जिसमें इंद्र देव की पूजा की जाती थी, को चुनौती दी। उनका तर्क स्पष्ट था: “बरसात इसलिए नहीं होती कि हम इंद्र की पूजा करें, बल्कि इसलिए कि गोवर्धन पर्वत हमें जल देता है, पशुओं को चारा देता है, खेतों को पोषण देता है। पूजा तो उसी की होनी चाहिए।” यह प्रकृति के प्रति आभार और उसकी महत्ता को स्थापित करने का एक उत्कृष्ट संदेश था।

गोबर की पूजा और अर्थव्यवस्था की धुरी गाय: गोमये वसते लक्ष्मी

गोबर को पूजा में शामिल करना केवल एक कर्मकांड नहीं है, बल्कि यह गोवर्धन (गाय), भूमि (धरती) और अन्न के बीच स्थापित होने वाले अटूट संबंध का प्रतीक है। गोबर धरती को उपजाऊ बनाता है और पूरे फूड साइकिल (खाद्य चक्र) का एक अपरिहार्य हिस्सा है, इसीलिए कहा गया है कि “गोमये वसते लक्ष्मीः”। गाय अनाज और भूसा खाती है, लेकिन यह अनाज तब तक नहीं मिल सकता जब तक ज़मीन को उपजाऊ बनाने वाली खाद न मिले, जो गोबर से ही आती है। इस तरह, गोबर जमीन को उर्वरा बनाकर अन्न उत्पादन सुनिश्चित करता है। 

मनुष्य इस संबंध के केंद्र में आकर लाभ लेता है: वह अनाज लेता है और उसके बदले में अपनी कारीगरी और हुनर का सामान खरीदता है। प्राचीन भारत में यह प्रक्रिया वस्तु विनिमय पर आधारित थी, जिसने व्यापार को विकसित किया और बाद में प्रॉमिसरी नोट (करंसी) आने से व्यवस्था और सुगम हो गई। इस अर्थव्यवस्था में गाय भारत की धुरी होती थी, जो स्वयं गाय (दूध और आगे की नस्ल) देती थी और खेत जोतने के लिए बैल भी देती थी। दुर्भाग्य से, मनुष्य ने बाद में गाय से उसका दूध छीना और उसके बच्चों का भी गलत इस्तेमाल किया, जो इस पूरे प्राकृतिक संबंध के विपरीत था, जिससे यह सिद्ध होता है कि मूल संदेश था प्रकृति का सम्मान करना न कि केवल देवताओं की पूजा करना।

राजा बलि की कथा: प्रकृति से जुड़ाव को विदाई देने का दिन

दीपावली से जुड़ी एक अन्य महत्वपूर्ण कथा राजा बलि से संबंधित है, जिसे कुछ विद्वानों द्वारा गैर-आर्यों को आर्यों द्वारा काबू करने की कहानी या भगवान विष्णु की चतुराई के रूप में देखा जाता है। राजा बलि भारतीय संस्कृति का एक परिचित नाम हैं, जिन्हें विशेष रूप से केरल में आज भी याद किया जाता है, जहाँ ओणम के रूप में उनका स्वागत किया जाता है। 

कथा के अनुसार, राजा बलि अपने गुरु शुक्राचार्य के मार्गदर्शन में अत्यंत शक्तिशाली हो गए थे और उन्होंने धरती, आकाश और पाताल—तीनों पर विजय प्राप्त कर ली थी। देवताओं ने तब एक चाल चली और भगवान विष्णु ने वामन अवतार (एक बौने ब्राह्मण का रूप) लिया। वामन ने राजा बलि से दान में केवल तीन कदम जमीन मांगी। राजा बलि ने दान दे दिया, यह सोचकर कि एक छोटे आदमी के कदम भी छोटे होंगे। लेकिन वामन ने पहले कदम से धरती, दूसरे से आकाश नाप लिया और तीसरे कदम के लिए कोई जगह नहीं बची। 

वचन से बंधे राजा बलि को पाताल लोक जाने के लिए मजबूर होना पड़ा। विष्णु जी ने उन्हें यह छूट दी कि वे साल में एक दिन धरती पर आ सकते हैं, और वह दिन दीपावली का होता है, जबकि दूसरा दिन, दिवाली की प्रतिपदा, उनकी विदाई का होता है। यह कथा भी प्रकृति से जुड़ाव और उसके त्याग की भावना को दर्शाती है, जिसे केरल, गुजरात और नेपाल में गौ पूजा और अन्य अनुष्ठानों के माध्यम से मनाया जाता है।

मूल स्वरूप का विस्मरण: धर्म कर्मकांड और कारोबार में सिमटा

यह एक गहरा दुर्भाग्य है कि प्रकृति से जुड़ाव के लिए मनाए जाने वाले पर्वों का मूल स्वरूप विकृत होकर आज प्रकृति को नष्ट करने और उसका दोहन करने का पर्व बन गया है। जहाँ कृष्ण का संदेश पर्यावरण के संरक्षण का था, वहीं आज हम पटाखे झोंककर, पेड़ काटकर और समाज को केवल व्यापारी की मर्जी से चलाकर इसका उल्टा करने लगे हैं। गाय जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था की धुरी के रूप में कार्य किया, आज वह केवल राजनीति का खेल बन गई है। उसे माता उसके प्रकृति में योगदान (दूध, खाद, खेती) के कारण कहा गया था, न कि केवल पूजा के लिए।

 लेकिन आज हमने उसकी पूजा करना शुरू कर दिया—एक दिन पूजा, दूसरे दिन से शोषण। इस तरह, हम धर्मों के मूल स्वरूप को भूलते जा रहे हैं। धर्म को कर्मकांड में बदलने से धर्म की वास्तविक हानि हुई है, और इसका लाभ केवल उन्हें हुआ जिन्होंने धर्म को कारोबार बनाकर उस पर पलने वालों की सत्ता को मजबूत किया। आज यही प्रवृत्ति राजनीति में भी बदल गई है।

 लोग सोचते हैं कि भगवान का संदेश मत मानो, उनके बताए रास्ते पर मत चलो, बस उन्हें मस्का मारते रहो, उनकी तारीफ में गीत गाओ, अच्छा खाने को दो, और पैसे दो। यह व्यवहार भगवान को प्रसन्न नहीं करता, बल्कि उनको प्रसन्न करता है जो साहूकार की तरह वस्तु विनिमय के बीच में आकर बैठ गए हैं—यानी वे लोग जो भगवान और भक्त के बीच में आ गए हैं।

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