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गाज़ा: मानवता के खिलाफ़ युद्ध या नेतन्याहू की राजनीति का नंगा खेल

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गाज़ा/ वाशिंगटन/ 21 अक्टूबर 2025

परिचय: गाज़ा की राख पर खेली जा रही सत्ता की बाज़ी

मध्य पूर्व का सबसे खूबसूरत इलाका अब दुनिया का सबसे बड़ा कब्रिस्तान बन चुका है। गाज़ा में हर तरफ धुआँ, मलबा, और चीखें हैं — और इस त्रासदी की ज़िम्मेदारी सीधे इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के सिर पर है। नेतन्याहू ने “राष्ट्रीय सुरक्षा” के नाम पर ऐसा युद्ध छेड़ा है, जो अब आतंकवाद के खिलाफ़ नहीं बल्कि मानवता के खिलाफ़ लड़ाई बन चुका है। हर बम गिरने के साथ एक घर टूट रहा है, हर धमाके के साथ एक माँ अपने बच्चे को खो रही है। नेतन्याहू का यह युद्ध एक नेता की राजनीतिक मजबूरी बन चुका है — जो अपनी डूबती सत्ता को निर्दोषों के खून से तैराए रखने की कोशिश कर रहा है।

नेतन्याहू का एजेंडा: सत्ता बचाने के लिए जंग का सहारा

पिछले एक वर्ष से नेतन्याहू की राजनीतिक स्थिति बेहद अस्थिर रही है। उन पर भ्रष्टाचार, सत्ता के दुरुपयोग और न्यायपालिका में हस्तक्षेप के गंभीर आरोप हैं। इज़राइल के भीतर जनता का आक्रोश बढ़ रहा था, सड़कों पर लाखों लोग उनके इस्तीफे की मांग कर रहे थे। लेकिन जैसे ही उन्होंने गाज़ा पर हमला शुरू किया, देश का पूरा ध्यान “राष्ट्रीय सुरक्षा” की ओर मोड़ दिया गया। अब विरोधी चुप हैं, मीडिया नियंत्रित है, और नेतन्याहू “राष्ट्र रक्षक” के रूप में पुनर्जीवित हो गए हैं। यह वही पुराना खेल है — आंतरिक संकट को बाहरी दुश्मन के डर से ढक देना। नेतन्याहू जानते हैं कि जब देश युद्ध में होता है, तब जनता सवाल नहीं पूछती, सिर्फ आदेश मानती है। गाज़ा के हर बम की गूँज दरअसल नेतन्याहू के सत्ता के गलियारों में गूंज रही है।

गाज़ा: जहां युद्ध नहीं, नरसंहार हो रहा है

संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों की रिपोर्टें कहती हैं कि गाज़ा में मानवीय आपदा अपने चरम पर है। शहर की 70% आबादी बेघर हो चुकी है, अस्पताल ध्वस्त हैं, बिजली और पानी की आपूर्ति बंद है, और बच्चे भूख से तड़प रहे हैं। पर नेतन्याहू की सेना “हमास के ठिकानों” के नाम पर पूरे इलाकों को मिटा रही है। यह कोई “आतंक के खिलाफ अभियान” नहीं, बल्कि सामूहिक दंड (collective punishment) है। अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत ऐसा अपराध युद्ध अपराध कहलाता है, लेकिन नेतन्याहू के लिए यह सब “रक्षा रणनीति” है। असलियत यह है कि गाज़ा आज दुनिया का सबसे बड़ा खुला कारागार बन चुका है — जहाँ दीवारों की जगह बारूद है, और आकाश में इंसानों की जगह ड्रोन उड़ रहे हैं।

अमेरिका की भूमिका: हथियारों की राजनीति और मौन समर्थन

अमेरिका आज भी इस युद्ध में “मध्यस्थ” की भूमिका का दावा करता है, लेकिन उसका वास्तविक चेहरा कुछ और है। व्हाइट हाउस से लेकर पेंटागन तक, सब जानते हैं कि इज़राइल की सेना अमेरिकी हथियारों से चल रही है। 2024-25 के बीच अमेरिका ने इज़राइल को 1.5 अरब डॉलर से अधिक की सैन्य सहायता दी है — जिसमें रॉकेट, एयर डिफेंस सिस्टम और निगरानी उपकरण शामिल हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने एक ओर शांति की अपील की, पर दूसरी ओर नेतन्याहू को “हमारे सबसे भरोसेमंद साथी” बताया। यह दोहरी नीति अमेरिकी नैतिकता पर सवाल उठाती है — क्या इंसानियत की कीमत अमेरिकी हथियार उद्योग के मुनाफे से कमतर है? वाशिंगटन अब शांति का संदेश नहीं, बल्कि युद्ध का लाइसेंस बाँट रहा है।

ईरान की चाल: आग को सुलगाने की रणनीति

ईरान इस संघर्ष में प्रत्यक्ष रूप से शामिल नहीं है, लेकिन उसकी छाया हर मोर्चे पर मौजूद है। तेहरान हमास को “प्रतिरोध का प्रतीक” बताता है और नेतन्याहू को “आधुनिक फिरौन।” ईरान की रणनीति यह है कि यह युद्ध इतना लंबा चले कि अमेरिका और इज़राइल दोनों थक जाएँ। हिज़बुल्लाह, हूथी और शिया मिलिशिया — सभी ईरान की परोक्ष भूमिका के तहत सक्रिय हैं। यह “प्रॉक्सी वॉर” का नया चेहरा है, जहाँ हथियार, विचार और वैचारिक जिद का तिलिस्म फैलाया जा रहा है। ईरान इस संघर्ष को एक धार्मिक युद्ध के रूप में पेश कर रहा है, ताकि पूरे अरब जगत में इस्लामी भावनाएँ उभरें और उसका प्रभाव बढ़े। लेकिन इस राजनीतिक शतरंज में सबसे बड़ी कीमत गाज़ा की जनता चुका रही है — न ईरान जीत रहा है, न इज़राइल, सिर्फ मौतें बढ़ रही हैं।

क़तर की भूमिका: मध्यस्थ या मौक़ा-साधक?

क़तर एक ओर खुद को “शांति मध्यस्थ” कहता है, तो दूसरी ओर हमास के लिए फंडिंग का आरोप झेलता है। दोहा की सरकार ने गाज़ा में मानवीय राहत भेजने की घोषणा की, लेकिन उसी दौरान उसके वित्तीय संस्थानों पर आरोप लगे कि वहाँ से हमास को आर्थिक सहायता दी जा रही है। क़तर की नीति बेहद चालाक है — वह खुद को “दोनों पक्षों के बीच सेतु” दिखाता है ताकि उसकी अंतरराष्ट्रीय साख बढ़े, लेकिन असल में वह इस संकट से कूटनीतिक लाभ उठा रहा है। पश्चिमी देश उसे एक उपयोगी खिलाड़ी मानते हैं, और अरब राष्ट्र उसे “मौक़ा-साधक।” क़तर की यह दोहरी भूमिका उसे एक रहस्यमय शक्ति बना चुकी है — जो एक तरफ शांति की बात करता है, और दूसरी तरफ संघर्ष को जीवित रखता है।

संयुक्त राष्ट्र: एक मूक दर्शक बन चुकी संस्था

संयुक्त राष्ट्र, जो कभी विश्व शांति की सबसे बड़ी उम्मीद हुआ करता था, आज लगभग बेबस दिख रहा है। गाज़ा में लगातार बढ़ती तबाही के बीच यूएन ने कई बार “मानवीय विराम” की मांग की, लेकिन हर बार अमेरिका ने सुरक्षा परिषद में वीटो लगा दिया। महासचिव एंतोनियो गुटेरेस ने साहस दिखाते हुए कहा कि “यह त्रासदी अचानक नहीं हुई, बल्कि दशकों की नीतिगत अन्याय का परिणाम है।” लेकिन इज़राइल और उसके सहयोगियों ने उन्हें “हमास समर्थक” कहकर बदनाम कर दिया।संयुक्त राष्ट्र अब केवल “निंदा प्रस्ताव” पारित करने की मशीन बन गया है। गाज़ा में जो हो रहा है, वह न सिर्फ मानवता की हार है बल्कि उस संस्था की भी पराजय है जिसे विश्व की नैतिक चेतना कहा जाता था।

युद्ध की अर्थव्यवस्था: बारूद से चलती राजनीति

यह युद्ध अब केवल सैन्य नहीं, बल्कि आर्थिक उद्योग बन चुका है। इज़राइल के रक्षा ठेकेदार, अमेरिकी हथियार कंपनियाँ और वैश्विक लॉबियाँ इस आग में सोना कमा रही हैं। हर मिसाइल का एक ठेकेदार है, हर बम का एक व्यापारी। अमेरिका की “रेथियॉन” और “लॉकहीड मार्टिन” जैसी कंपनियों के शेयर गाज़ा हमलों के साथ ऊपर जा रहे हैं। नेतन्याहू का युद्ध उनके लिए व्यवसायिक अवसर बन गया है। यानी जब एक बच्चा गाज़ा में मरता है, तो किसी न्यूयॉर्क के कॉर्पोरेट बोर्डरूम में मुस्कान फैलती है। यह आधुनिक पूँजीवाद का सबसे क्रूर चेहरा है — जहाँ मौत मुनाफे का साधन बन चुकी है।

नेतन्याहू की जीत, मानवता की हार

गाज़ा की त्रासदी अब केवल एक भौगोलिक संघर्ष नहीं, बल्कि मानव सभ्यता की परीक्षा बन चुकी है। नेतन्याहू ने दिखा दिया है कि कैसे एक लोकतांत्रिक देश भी तानाशाही की राह पर जा सकता है। उन्होंने शांति की जगह बदले की राजनीति चुनी, और हर बम के साथ अपनी सत्ता को और मजबूत किया। लेकिन इतिहास की किताबें उन्हें एक “राष्ट्र रक्षक” के रूप में नहीं, बल्कि एक “राजनीतिक राक्षस” के रूप में याद रखेंगी — जिसने अपने देश के भीतर के संकट को छिपाने के लिए एक पूरी जनता को मिटा दिया।

गाज़ा की राख में आज भी बच्चे खेलना चाहते हैं, लेकिन आसमान से गिरता हर बम उन्हें याद दिला देता है कि मानवता अब राजनीति की गुलाम बन चुकी है। नेतन्याहू का यह युद्ध खत्म होगा या नहीं, यह किसी को नहीं पता — लेकिन इतना तय है कि उसकी गूंज आने वाली पीढ़ियों की आत्मा तक सुनाई देगी। क्योंकि यह युद्ध नहीं था — यह मानवता का वध था, और उसका नाम था — बेंजामिन नेतन्याहू।

 

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