यह कहानी केवल एक युवक की व्यक्तिगत त्रासदी नहीं है, बल्कि उस भारत की घोर विडंबना का एक आईना है जो एक ओर ‘विकसित राष्ट्र’ बनने का सपना दिखाता है, वहीं दूसरी ओर जातिवाद की सदियों पुरानी जंजीरों से अपनी ही प्रतिभाशाली प्रतिभाओं को जकड़ देता है। प्रेम बिरहाड़े, महाराष्ट्र के नंदुरबार जैसे दूरस्थ और गरीब आदिवासी जिले के एक होनहार दलित छात्र, ने अपनी प्रतिभा के बल पर लंदन के प्रतिष्ठित University of Sussex (UK) से स्नातक की डिग्री हासिल की।
उनकी कड़ी मेहनत रंग लाई और उन्हें लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट पर नौकरी का एक सुनहरा अवसर मिला, लेकिन यह जीत जल्द ही एक कड़वी हार में बदल गई। कारण कोई दस्तावेज़ी कमी या योग्यता का अभाव नहीं था, बल्कि भारतीय समाज में गहरे तक पैठी हुई जातिवादी सोच की घृणित दीवार थी, जिसके चलते उन्हें यह अंतर्राष्ट्रीय नौकरी गंवानी पड़ी। यह घटना स्पष्ट करती है कि भारत में संस्थागत भेदभाव किस हद तक व्याप्त है और कैसे यह देश के सबसे पिछड़े तबके के युवाओं के सपनों को उनके अंतिम चरण पर आकर तोड़ देता है।
पुणे कॉलेज का शर्मनाक दमन: जब सफलता से डर गई जातिवादी सोच
प्रेम बिरहाड़े के लंदन में नौकरी के अवसर को छीनने में Modern College of Arts, Science & Commerce, पुणे ने जो शर्मनाक भूमिका निभाई, वह संस्थागत जातिवाद का एक स्पष्ट उदाहरण है। जब प्रेम की नौकरी के लिए उनके अकादमिक दस्तावेज़ों के सत्यापन हेतु कॉलेज से संपर्क किया गया, तो कॉलेज की प्रिंसिपल डॉ. निवेदिता गजानन एकबोटे ने कथित तौर पर सत्यापन करने से साफ़ इनकार कर दिया। रिपोर्टों के अनुसार, इनकार का कारण सीधे तौर पर प्रेम की जाति पूछना था, और जैसे ही यह पता चला कि वह दलित समुदाय से हैं, सत्यापन रोक दिया गया।
यह विडंबना देखिए कि यही कॉलेज कुछ वर्ष पहले प्रेम के Sussex University में दाखिले के समय उन्हीं दस्तावेज़ों को सहर्ष प्रमाणित कर चुका था; लेकिन जैसे ही मामला एक प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय नौकरी और बड़ी सफलता से जुड़ा, तो जाति का भूत तुरंत सामने आ गया। यह घटना सिर्फ़ एक कॉलेज की नहीं, बल्कि उस भारतीय शिक्षा व्यवस्था की नैतिक विफलता को दर्शाती है, जहाँ योग्यता और मेहनत को नहीं, बल्कि जन्म के आधार पर मिली पहचान को अंतिम सत्य माना जाता है, जिससे प्रेम जैसे लाखों दलित युवाओं की उम्मीदों पर सीधे तौर पर कुठाराघात होता है।
संस्थागत जातिवाद की व्यापकता: शिक्षा से रोज़गार तक
प्रेम बिरहाड़े की “नंदुरबार से लंदन” तक की संघर्षपूर्ण और प्रेरणादायक यात्रा बताती है कि कैसे एक गरीब पृष्ठभूमि का छात्र अपनी प्रतिभा, छात्रवृत्ति और अथक मेहनत के दम पर सफलता की ऊंचाइयों को छू सकता है। लेकिन उनकी कहानी यह भी प्रमाणित करती है कि भारत में संस्थागत जातिवाद अब केवल गाँवों या मंदिरों की सीमाओं तक सीमित नहीं रह गया है। यह अब देश के आधुनिक और प्रतिष्ठित माने जाने वाले शिक्षण संस्थानों, विश्वविद्यालयों, और रोज़गार के अवसरों तक गहराई से फैला हुआ है।
हर साल ऐसे अनगिनत मामले सामने आते हैं जहाँ दलित और आदिवासी छात्रों को प्रवेश, छात्रवृत्ति, या सबसे महत्वपूर्ण, उनके शैक्षिक प्रमाणपत्रों के सत्यापन के नाम पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। संविधान द्वारा समानता और न्याय की गारंटी दिए जाने के बावजूद, यह देश आज भी अपने ही नागरिकों को उनकी जाति के नाम पर नीचा दिखाने से बाज़ नहीं आ रहा है। यह घटना भारत की उस आत्मा के लिए एक गंभीर परीक्षा है जो खुद को न्यायपूर्ण और प्रगतिशील कहती है, लेकिन वास्तव में योग्यता को जाति की जंजीरों में जकड़कर रखती है।
निर्णायक जवाबदेही: योग्यता या जाति?
प्रेम बिरहाड़े के साथ हुआ यह अन्याय सिर्फ़ व्यक्तिगत क्षति का मामला नहीं है, बल्कि यह पूरे देश की आत्मा के लिए एक कड़वी परीक्षा है। यदि भारत को वास्तव में “विकसित राष्ट्र” बनना है, तो उसे सबसे पहले इस जाति आधारित भेदभाव के कलंक से खुद को मुक्त करना होगा। यह घटना स्पष्ट रूप से मांग करती है कि सरकार, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग को इस मामले में तुरंत संज्ञान लेना चाहिए और Modern College की प्रिंसिपल के ख़िलाफ़ सख्त और निर्णायक कार्रवाई करनी चाहिए।
नंदुरबार के उस गरीब परिवार के बेटे ने विदेश में भारत का नाम ऊँचा करने की कोशिश की, लेकिन उसे अपनी ही मातृभूमि के शिक्षा संस्थानों द्वारा जाति के नाम पर अपमानित होना पड़ा। प्रेम की यह कहानी देश से एक सीधा और निर्णायक सवाल पूछती है: क्या भारत में योग्यता, मेहनत और प्रतिभा से बड़ी अब भी जाति है? जब तक संस्थागत स्तर पर जातिवाद पर सख्त रोक नहीं लगेगी, तब तक “समानता” और “न्याय” जैसे पवित्र शब्द केवल किताबों के पन्नों तक ही सीमित रहेंगे और अगली पीढ़ी का भविष्य इसी भेदभाव की राख में दफ़न होता रहेगा।