डॉ. शुजात अली क़ादरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, मुस्लिम स्टूडेंट्स ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ़ इंडिया (MSO)
(सूफ़ीवाद, जननीति, भू-राजनीति और सूचना युद्ध से संबंधित विषयों पर लिखते हैं।)
नई दिल्ली 19 अक्टूबर 2025
पाकिस्तान लंबे समय से खुद को तथाकथित “मुस्लिम उम्मा का रक्षक” बताता आया है — बार-बार फ़िलिस्तीन के साथ एकजुटता दिखाने और इज़राइल की आक्रामकता की निंदा करने का दावा करता रहा है। लेकिन जब लाहौर की सड़कों पर आम नागरिकों ने उसी फ़िलिस्तीन के समर्थन में शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने की कोशिश की, तो उनका स्वागत समर्थन से नहीं, बल्कि लाठियों, गिरफ्तारियों और राज्य की दमनकारी ताक़त के प्रदर्शन से किया गया। प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ की सरकार के आदेश पर और जनरल आसिम मुनीर की सैन्य-समर्थित व्यवस्था द्वारा की गई इस कार्रवाई ने इस्लामाबाद के दशकों पुराने पाखंड का नक़ाब उतार दिया है।
अपनी ही जनता से डरती सरकार
लाहौर की यह रैली कोई सशस्त्र बगावत नहीं थी, न ही हिंसक विरोध। यह छात्रों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, धार्मिक समूहों और साधारण नागरिकों द्वारा आयोजित एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन था — जो ग़ाज़ा के पीड़ितों के साथ एकजुटता जताने के लिए एकत्र हुए थे।
लेकिन सरकार, जो पहले से ही आर्थिक पतन और राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रही है, नागरिकों के इस एकजुट होने से बुरी तरह डर गई। नतीजतन, उसने पुलिस बल को उतार दिया, प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लिया और “फ़िलिस्तीन की आज़ादी” के नारों का जवाब लाठीचार्ज और आँसू गैस से दिया गया।
यह तानाशाही रवैया पाकिस्तान की सत्ता संरचना के भीतर की गहरी असुरक्षा को उजागर करता है। शरीफ़ सरकार, जो पहले ही वैधता के संकट में फँसी हुई है, अपने नागरिकों द्वारा संवैधानिक अधिकारों के प्रयोग से ज़्यादा डरती है, बजाय इसके कि इज़राइल के युद्ध अपराधों से। यह कमज़ोर सरकारों की वही पुरानी रणनीति है — देश के भीतर असहमति को कुचलो और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर खोखली निंदा के बयान जारी करो।
पाखंड की असली तस्वीर: सेना की दोहरी नीति
सबसे बड़ा पाखंड पाकिस्तान की सेना का है। दशकों से सेना खुद को “इस्लामी दुनिया का रक्षक” और “पश्चिमी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की दीवार” बताती आई है। लेकिन जब उसके अपने लोग उसी मुद्दे पर एकत्र हुए, जिसे वह खुद अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाती है, तो उसी सेना ने उनके ख़िलाफ़ दमन चलाया।
जनरल आसिम मुनीर की चुप्पी बहुत कुछ कहती है। यह उसी बात की पुष्टि करती है जो आलोचक वर्षों से कहते आए हैं — कि पाकिस्तान की सेना का फ़िलिस्तीन के प्रति समर्थन केवल दिखावे के लिए है; यह महज़ एक विदेशी नीति का नारा है, जिसका इस्तेमाल वह अपने घरेलू अधिनायकवाद को छिपाने के लिए करती है। वही सेना जो संयुक्त राष्ट्र में फ़िलिस्तीन के अधिकारों पर भाषण देती है, अपने देश में शांतिपूर्ण समर्थन रैलियों को बर्दाश्त नहीं कर पाती।
अमेरिका और खाड़ी देशों को खुश करने का खेल
इस कार्रवाई के पीछे एक और कारण है — और वह है पाकिस्तान की “नयी कूटनीतिक चालबाज़ी।” पिछले कुछ महीनों में पाकिस्तान ने अमेरिका और खाड़ी देशों के साथ अपने रिश्ते सुधारने की कोशिश की है — जिनमें से कई या तो इज़राइल के साथ गठजोड़ में हैं या उससे संबंध सामान्य कर चुके हैं।
अब पाकिस्तान की प्राथमिकता सहायता पैकेज, IMF ऋण, और सैन्य सौदे लगते हैं — न कि एक उत्पीड़ित जनता का नैतिक समर्थन।
फ़िलिस्तीन समर्थक आवाज़ों को दबाकर, इस्लामाबाद वाशिंगटन और रियाद को यह संदेश दे रहा है कि वह “ज़िम्मेदार” और “काबू में रहने वाला” है।
यह कार्रवाई केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला नहीं है — यह विदेशी शक्तियों को दिया गया एक संकेत है कि पाकिस्तान अपनी सड़कों को अपनी विदेश नीति तय नहीं करने देगा।
जनता और फ़िलिस्तीन — दोनों के साथ विश्वासघात
इस पूरे घटनाक्रम का सबसे दुखद पहलू यह है कि यह न केवल पाकिस्तान की अपनी जनता के साथ विश्वासघात है, बल्कि फ़िलिस्तीन के लोगों के साथ भी।
दशकों से फ़िलिस्तीनी मुसलमान देशों से एकजुटता की उम्मीद करते आए हैं। जब एक मुस्लिम देश में शांतिपूर्ण रैली तक को कुचल दिया जाता है, तो यह बेहद निराशाजनक संदेश देता है — कि “भाईचारे” और “एकजुटता” के नारे सिर्फ़ राजनीतिक दिखावा हैं, जिन्हें सत्ता के हितों के लिए त्यागा जा सकता है।
लाहौर की यह कार्रवाई एक आईना है — जो पाकिस्तान के शासक वर्ग की नैतिक दिवालियापन को उजागर करती है।
यह वही वर्ग है जो धर्म और प्रतिरोध के नारों का इस्तेमाल जनता को भ्रमित करने के लिए करता है, लेकिन सत्ता और लाभ के सामने दोनों को त्याग देता है।
इतिहास याद रखेगा कौन खड़ा था सच्चाई के साथ
लाहौर की सड़कों पर लाठियाँ भीड़ को तितर-बितर कर सकती हैं, लेकिन सच को ख़ामोश नहीं कर सकतीं पाकिस्तानी जनता अब यह समझ रही है कि उनकी सरकार और सेना न फ़िलिस्तीन में न्याय की परवाह करती है, न अपने देश में। जनता याद रखेगी कि कौन उत्पीड़ितों के साथ खड़ा हुआ और किसने उनकी गिरफ्तारी का आदेश दिया। इतिहास कभी भी उन लोगों को माफ़ नहीं करेगा जिन्होंने साहस और सत्य के बजाय कायरता और पाखंड को चुना। अगर पाकिस्तान सच में फ़िलिस्तीन के साथ खड़ा होना चाहता है, तो उसे पहले अपने देश में उन लोगों का सम्मान करना होगा जो ग़ाज़ा के लिए आवाज़ उठाते हैं। जब तक ऐसा नहीं होता, उसके एकजुटता के बयान खोखले रहेंगे और अन्याय के सामने उसकी चुप्पी किसी भी संयुक्त राष्ट्र भाषण से ज़्यादा गूंजेगी।