नई दिल्ली/ पटना 19 अक्टूबर 2025
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की सरगर्मी के बीच कांग्रेस ने दलित वोट बैंक को साधने की नई कोशिश की है। पार्टी ने जिन 10 सुरक्षित सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं, उनमें जातीय गणित और सामाजिक संतुलन दोनों की झलक साफ दिखती है — लेकिन सवाल ये है कि क्या यह रणनीति कांग्रेस को दलितों के बीच अंक दिला पाएगी?
रविदास समाज — 60% टिकट:
कांग्रेस ने दस में से छह टिकट रविदास समाज को देकर यह साफ संदेश दिया है कि पार्टी अब अपने परंपरागत वोट बैंक को साधने की पुरजोर कोशिश में है। यह कदम पार्टी की “वफादार समर्थक जातियों को प्राथमिकता” की नीति को दिखाता है।
पासवान समाज — 20% हिस्सेदारी:
दो सीटें पासवान समाज को देकर कांग्रेस ने यह जताया है कि वह अब उस वर्ग को भी जोड़ना चाहती है, जिसकी राजनीतिक पकड़ हर दल में मज़बूत रही है। पासवान समाज के वोट अब निर्णायक भूमिका में हैं — कांग्रेस ने इस समीकरण को पहचानने की कोशिश की है।
धोबी समाज — नई संभावनाओं का संकेत:
एक टिकट धोबी समुदाय को देकर कांग्रेस ने उस असंतोष को भांपने की कोशिश की है जो हाल के वर्षों में इस समाज में एनडीए के प्रति बढ़ा है। यह रणनीतिक जोड़ कांग्रेस को नई ज़मीन दिला सकता है।
मुसहर समाज — उपेक्षा या भूल?
सबसे बड़ा सवाल यही है कि कांग्रेस ने मुसहर समुदाय को टिकट क्यों नहीं दिया? यह समाज बिहार के सबसे वंचित तबकों में से एक है और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की कमी से लगातार जूझ रहा है।
मुसहरों को नज़रअंदाज़ करना कांग्रेस की “दलित विस्तार नीति” पर प्रश्नचिह्न लगाता है।
अन्य दलित जातियां — सीमित सोच, सीमित पहुंच:
रविदास और पासवान पर फोकस करते हुए कांग्रेस ने अन्य दलित जातियों को लगभग अनदेखा कर दिया है। इससे यह साफ झलकता है कि पार्टी अभी भी दलित समाज को “कुछ प्रमुख जातियों” तक सीमित रूप में देख रही है — जबकि ज़मीन पर हकीकत इससे कहीं व्यापक है।
कांग्रेस ने दलितों में अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए कदम तो उठाए हैं, लेकिन “10 में से कितने नंबर लाएगी” — यह इस बात पर निर्भर करेगा कि वह मुसहर और अन्य उपेक्षित जातियों के भरोसे को कितनी जल्दी और सच्चाई से जीत पाती है। बिहार की राजनीति में दलित समीकरण सिर्फ टिकट बांटने से नहीं, सम्मान, प्रतिनिधित्व और भरोसे से तय होते हैं — और यही कांग्रेस की अगली बड़ी परीक्षा है।