भारत का सूचना का अधिकार क़ानून — RTI Act, जिसे कभी “जनता का सबसे बड़ा हथियार” कहा जाता था, अब महज़ एक कागज़ी औपचारिकता बनकर रह गया है। केंद्र की मोदी सरकार पर गंभीर आरोप लग रहे हैं कि उसने इस ऐतिहासिक कानून की आत्मा को योजनाबद्ध तरीके से खत्म कर दिया है। पारदर्शिता की जगह गोपनीयता ने ले ली है, जवाबदेही की जगह अहंकार ने — और लोकतंत्र के उस मूल स्तंभ को खोखला कर दिया गया है जो कभी सत्ता को जनता के आगे झुकने पर मजबूर करता था।
कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने अंग्रेज़ी अखबार इंडियन एक्सप्रेस में लिखे अपने कॉलम में कहा है कि “कानून अब भी कागज़ पर जिंदा है, लेकिन उसकी मशीनरी को बुरी तरह तोड़ दिया गया है।” उनका कहना है कि मोदी सरकार ने RTI की संस्थागत ताकत को खत्म करने के लिए एक सोची-समझी साज़िश रची — ताकि सत्ता में बैठे लोग किसी जवाबदेही से बच सकें।
खेड़ा ने अपने लेख में लिखा है कि RTI कभी वह औज़ार था जिसने आम आदमी को प्रधानमंत्री कार्यालय, रक्षा मंत्रालय और राज्य सरकारों तक सवाल पूछने का अधिकार दिया। लेकिन आज हालात यह हैं कि RTI फाइल करने वाला ही संदिग्ध बन जाता है। सूचना मांगने वालों को धमकियाँ मिलती हैं, कुछ की जान चली जाती है, और सरकार से सिर्फ खामोशी लौटती है।
उन्होंने लिखा कि केंद्रीय सूचना आयोग — जो इस कानून की रीढ़ था — अब “सरकारी दबाव में घुटनों पर आ चुका है।” आयोगों में महीनों से रिक्तियां हैं, अपीलें ढेर हो रही हैं, और नागरिकों को जवाब पाने के लिए वर्षों का इंतज़ार करना पड़ता है। “यह वही संस्था थी जो कभी मंत्रियों को जवाब देने पर मजबूर करती थी, और आज वही संस्था सत्ता की इच्छानुसार काम कर रही है,” खेड़ा ने लिखा।
विशेषज्ञों का कहना है कि मोदी सरकार ने RTI को खत्म करने के लिए कोई एक बड़ा हमला नहीं किया, बल्कि धीरे-धीरे उसकी नसें काटीं। पहले सूचना आयुक्तों की स्वतंत्रता पर वार हुआ, फिर नियुक्तियों को रोका गया, और अंततः “राष्ट्रीय सुरक्षा” और “गोपनीयता” के नाम पर लगभग हर जानकारी को छिपाने का तंत्र विकसित कर दिया गया। अब किसी नागरिक को सूचना चाहिए तो उसे अदालतों में सालों की लड़ाई लड़नी पड़ती है, जबकि सत्ता मनमाने ढंग से कह देती है — “यह जानकारी सार्वजनिक हित में नहीं है।”
यह परिदृश्य केवल RTI की विफलता नहीं, बल्कि लोकतंत्र के कमजोर होते स्वास्थ्य का आईना है। जिस कानून ने कभी जनता को यह ताक़त दी थी कि वे अपने शासकों से सवाल कर सकें, उसी कानून को अब शासकों ने अपने संरक्षण में लेकर, सवाल पूछने वालों को अपराधी बना दिया है।
पवन खेड़ा ने अपने कॉलम के अंत में लिखा, “कागज़ पर RTI ज़िंदा है, लेकिन उसके सीने में सांस नहीं। मोदी सरकार ने जवाबदेही की उस मशीन को तोड़ दिया है जिसने कभी शक्तिशाली को बेबस बनाया था और बेबस को बोलने की ताकत दी थी।” अब सवाल सीधा और गूंजता हुआ है — क्या भारत का लोकतंत्र भी अब सिर्फ कागज़ पर ही ज़िंदा रहेगा?