बेंगलुरु/ नई दिल्ली 13 अक्टूबर 2025
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया द्वारा सरकारी परिसरों और सार्वजनिक मैदानों में RSS के आयोजनों पर रोक लगाने का निर्णय न केवल कांग्रेस की वैचारिक दृढ़ता को दर्शाता है, बल्कि यह उन पाखंडों की धज्जियाँ उड़ाने का एक आवश्यक कदम भी है, जिसके सहारे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) दशकों से समाज में अपनी पैठ बना रहा है। संघ खुद को एक ‘शुद्ध सांस्कृतिक संगठन’ और ‘राष्ट्रभक्ति का ध्वजवाहक’ घोषित करता है, लेकिन इसकी कार्यप्रणाली और वैचारिक इतिहास इस दावे के पूरी तरह विपरीत हैं।
सवाल यह है: यदि RSS एक सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन मात्र है, तो उसे अपनी ‘शाखाओं’ के लिए केवल सरकारी और सार्वजनिक परिसरों की ही आवश्यकता क्यों पड़ती है? क्या कोई सच्चा सांस्कृतिक संगठन अपनी गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए लगातार राज्य के संसाधनों और सार्वजनिक संपत्तियों पर दावा ठोकता है? यह पाखंड है — एक ओर निजी लाभ और राजनीतिक पैठ के लिए सरकारी सुविधाओं का अनैतिक उपयोग करना, और दूसरी ओर संवैधानिक संस्थाओं के प्रति न्यूनतम सम्मान न दिखाना। कांग्रेस का यह निर्णय इस बात को स्पष्ट करता है कि सार्वजनिक स्थान किसी एक राजनीतिक विचारधारा के प्रचार का निजी अखाड़ा नहीं हो सकते, वे संविधान और सभी नागरिकों के लिए समान रूप से उपलब्ध हैं।
संघ का सबसे बड़ा वैचारिक पाखंड तब सामने आता है जब वह ‘राष्ट्रभक्ति’ का दावा करता है, जबकि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका हमेशा संदिग्ध रही। वे अब ‘राष्ट्रवाद’ का सबसे मुखर चेहरा बनने का प्रयास करते हैं, लेकिन इतिहास गवाह है कि संघ ने न केवल भारत छोड़ो आंदोलन से खुद को दूर रखा, बल्कि आज़ादी के बाद लंबे समय तक भारतीय तिरंगे को भी स्वीकार नहीं किया। उनका ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ वास्तव में संविधान में निहित बहुलतावाद और धर्मनिरपेक्षता के आदर्शों के खिलाफ एक सतत युद्ध है।
वे ‘सेवा’ की आड़ में शिक्षा और सामाजिक कार्यों के माध्यम से युवाओं का वैचारिक ब्रेनवाश करते हैं, जिससे संविधान द्वारा प्रदत्त समानता और तर्कशीलता के मूल्य क्षीण होते हैं। कांग्रेस का यह साहसी कदम यह सुनिश्चित करने के लिए है कि संवैधानिक संस्थाओं और सार्वजनिक शिक्षा को संघ की वैचारिक घुसपैठ से मुक्त रखा जाए। सिद्धारमैया सरकार यह संदेश दे रही है कि सार्वजनिक संपत्ति पर केवल संविधान का अधिकार है, न कि किसी ऐसे संगठन का, जो अपने कथित ‘सांस्कृतिक’ कार्यों की आड़ में एक विशेष राजनीतिक विचारधारा को थोपने का प्रयास करता है। यह पाखंड अब और नहीं चलेगा: कर्नाटक का निर्णय, सार्वजनिक स्थानों पर संघ की वैचारिक शाखाओं को रोककर, भारत के संवैधानिक धर्मनिरपेक्ष आधारों को पुनः स्थापित करने का एक निर्णायक प्रयास है, जो संघ के दोहरे मानकों और उसके ‘छद्म-राष्ट्रवाद’ के खोखलेपन को पूरी तरह उजागर करता है।