रणदीप सुरजेवाला का विस्फोटक बयान — सिस्टम पर सीधा हमला
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने ADGP वाई पूरन कुमार की मजबूरन आत्महत्या के मामले को लेकर हरियाणा की नौकरशाही, सत्ताधारी तंत्र और पुलिस प्रशासन पर सीधा तथा निर्मम प्रहार किया है। उनकी श्रद्धांजलि सभा के बाद दिए गए बयान ने राज्य की सत्ता की गूंगी चुप्पी को चीर दिया है, क्योंकि सुरजेवाला का प्रश्न सिर्फ एक अधिकारी की मौत तक सीमित नहीं है; यह भारतीय प्रशासनिक सेवा में व्याप्त गहरी जड़ें जमा चुके जातिगत भेदभाव और प्रशासनिक उत्पीड़न पर एक कठोर प्रश्नचिह्न है। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा है कि “अगर इतना बड़ा अधिकारी — जो कि आईआईएम अहमदाबाद का पूर्व छात्र है, जिसने आईएएस से भी ज़्यादा अंक लेकर आईपीएस में प्रवेश किया, जो एडीजीपी रैंक का अधिकारी था, और जिसकी पत्नी स्वयं एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी हैं — अगर ऐसा व्यक्ति भी जातीय भेदभाव और प्रशासनिक उत्पीड़न का शिकार होकर अपनी जान दे दे, तो यह केवल एक आत्महत्या नहीं है, बल्कि यह प्रशासनिक अत्याचार की पराकाष्ठा है।”
सुरजेवाला का यह बयान स्पष्ट करता है कि वाई पूरन कुमार की मृत्यु एक व्यक्तिगत त्रासदी नहीं, बल्कि हरियाणा के उस प्रशासनिक तंत्र का सामूहिक अपराध है, जिसने एक योग्य और ईमानदार अधिकारी को मानसिक रूप से इतना मजबूर कर दिया कि उसे अंतिम कदम उठाना पड़ा। उनके अनुसार, अगर यह स्थिति शीर्ष अधिकारियों की है, तो राज्य में दलित, गरीब और आम नागरिक के न्याय की कल्पना करना भी बेमानी है।
जातिवाद और धार्मिक ठेकेदारी का सवाल — एक झकझोरने वाली घटना
सुरजेवाला का दूसरा सवाल और भी अधिक हृदय विदारक और हर हिंदुस्तानी के गले में अटकने वाला है, जो हरियाणा में व्याप्त जातिवादी मानसिकता की भयावह तस्वीर पेश करता है। उन्होंने प्रश्न किया है कि “क्या कारण है कि ADGP रैंक का अधिकारी पुलिस स्टेशन में बने मंदिर में दर्शन नहीं कर सकता?” यह सवाल हमारी संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता और आस्था के मौलिक अधिकार पर सीधा हमला है। यह दर्शाता है कि हरियाणा में धर्म भी अब जाति के ठेकेदारों की संपत्ति बन गया है, जहाँ किसी अधिकारी की आस्था, उसकी जाति से छोटी समझी जाती है।
इससे भी अधिक शर्मनाक तथ्य यह सामने आया है कि इस दलित अधिकारी को उनके पिता की मृत्यु होने पर भी घर जाने की अनुमति तक नहीं दी गई थी, जिससे स्पष्ट होता है कि यह प्रशासन नहीं, बल्कि एक सुनियोजित और निर्मम उत्पीड़न था, जहाँ ऊँचे पद पर बैठा व्यक्ति भी दलित होते ही अपमान और उपेक्षा का पात्र बन जाता है। यह तथाकथित “गुड़गांव मॉडल” की वास्तविकता है, जहाँ इंसानियत को जातिवाद की फाइलों में दफना दिया गया है, और यह प्रशासनिक तंत्र नहीं, बल्कि एक जातिवादी भूत है जो रोज़ संविधान की आत्मा को निगल रहा है।
शव के अपमान का आपराधिक षड्यंत्र — परिवार से न्याय छीनने की कोशिश
रणदीप सुरजेवाला ने सबसे भयावह और आपराधिक तथ्य उजागर किया, जिसने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया है: “परिवार को बताए बिना, शव को अस्पताल से पीजीआई ले जाया गया, दर्शन तक नहीं करने दिए गए!” यह न सिर्फ अमानवीयता की पराकाष्ठा है, बल्कि एक गंभीर आपराधिक षड्यंत्र की ओर इशारा करता है। एक ओर दुखी परिवार इंसाफ की गुहार लगा रहा था, और दूसरी ओर सत्ता और पुलिस की मशीनरी साक्ष्य और सम्मान मिटाने की तैयारी में जुटी थी।
इस कार्रवाई ने ‘गुड गवर्नेंस’ के सभी दावों की पोल खोल दी है, क्योंकि अगर एक एडीजीपी रैंक के अधिकारी का शव भी बिना परिवार की अनुमति या जानकारी के उठा लिया जाए, तो यह राज्य अब लोकतंत्र नहीं, बल्कि सिस्टम की एक अमानवीय माफिया सल्तनत बन चुका है। यह घटना दर्शाती है कि सत्ता में बैठे लोग किस हद तक जाकर सच को दबाने और न्याय को बाधित करने की कोशिश कर सकते हैं।
दलितों को कुर्सी, पर सम्मान नहीं — हरियाणा के जातिवादी चेहरे का पर्दाफाश
सुरजेवाला ने इस घटना को हरियाणा के सत्ताधारी चरित्र का आईना बताते हुए स्पष्ट किया कि “जब सरेआम दलित अधिकारियों के साथ यह अमानवीय व्यवहार होगा, तो समझिए शासन किसके हाथ में है।” उन्होंने कहा कि हरियाणा की राजनीति ने बार-बार दलितों को ‘प्रतीक’ बनाकर तो दिखाया, उन्हें कुर्सी दी, मगर जब वही अधिकारी सत्ता की सच्चाई पर सवाल उठाते हैं या सम्मान की माँग करते हैं, तो उन्हें मानसिक उत्पीड़न, डिप्रेशन और अंततः ‘आत्महत्या’ के नाम पर चुप करा दिया जाता है।
वाई पूरन कुमार का मामला हर उस दलित अफसर के लिए एक चेतावनी है, जो इस जातिवादी तंत्र में “बराबरी” का सपना देखने की हिम्मत करता है। यह साफ है कि हरियाणा में प्रशासनिक जातिवाद की जड़ें सत्ता की दीवारों में इतनी गहराई तक घुस चुकी हैं, जहाँ न्याय और योग्यता की जगह जाति और व्यक्तिगत वफादारी का हिसाब-किताब चलता है।
न्याय की पुकार और सिस्टम की चुप्पी — निष्कर्ष और भविष्य की चुनौती
रणदीप सुरजेवाला की अंतिम और मार्मिक पंक्ति — “कम से कम अब तो न्याय मिले!” — ने पूरे माहौल को हिला दिया है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या यह न्याय मिलेगा? जब आरोपी खुद कुर्सी पर बैठे हैं, जब जांच उन्हीं के मातहत कर रहे हैं, और जब एक मृतक अधिकारी के शव का सम्मान तक छीना गया है, तो न्याय का चेहरा कहाँ है? हरियाणा की सत्ताधारी मशीनरी ने न सिर्फ एक योग्य अधिकारी को मारा है, बल्कि दलित आत्मसम्मान, प्रशासनिक मर्यादा और संवैधानिक मूल्यों को भी खुलेआम चौराहे पर जला दिया है।
एडीजीपी वाई पूरन कुमार की मौत कोई दुर्घटना नहीं, बल्कि जातिवाद, अहंकार और सत्ता के घमंड की अंतिम, भयावह परिणति है। सुरजेवाला ने सिर्फ एक परिवार के लिए नहीं, बल्कि पूरे देश के दलित, ईमानदार और संवेदनशील अफसरों के लिए आवाज़ उठाई है। अब यह देश पर निर्भर करता है कि यह लड़ाई एक राष्ट्रीय न्याय आंदोलन बनेगी, या फिर यह मामला भी एक और फाइल बनकर ‘क्लोज़र रिपोर्ट’ में दब जाएगा, और भारत का हर संवैधानिक आदर्श, हर दलित अधिकारी के शव पर लिखा जाएगा — “सिस्टम ने फिर जीत लिया।”