कोलकाता 11 अक्टूबर 2025
बंगाल की राजनीति में नया रणभूमि — SIR बना सत्ता संघर्ष का प्रतीक
पश्चिम बंगाल में SIR (Special Intensive Revision) यानी विशेष मतदाता सूची पुनरीक्षण को लेकर शुरू हुआ विवाद अब एक राजनीतिक युद्ध में बदल चुका है।
जहाँ चुनाव आयोग इसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा बता रहा है, वहीं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसे “बीजेपी की साजिश” करार दिया है। Pदीदी का आरोप है कि आयोग बीजेपी के दबाव में काम कर रहा है और “SIR” के नाम पर राज्य के लाखों मतदाताओं को वोट देने के अधिकार से वंचित किया जा सकता है। बीजेपी का दावा है कि यह प्रक्रिया “फर्जी वोटरों की पहचान” के लिए आवश्यक है। लेकिन जनता पूछ रही है — क्या यह पहचान की प्रक्रिया है या मताधिकार की चोरी का नया तरीका?
आयोग पर उठ रहे सवाल — निष्पक्षता या राजनीतिक परिश्रय?
चुनाव आयोग की भूमिका इस पूरे विवाद में सबसे संवेदनशील है। लोकतंत्र में आयोग की निष्पक्षता सर्वोपरि होती है, लेकिन बंगाल में आयोग पर जो आरोप लग रहे हैं, वे उसकी साख को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। ममता बनर्जी ने कहा है कि आयोग की यह कार्रवाई केंद्र सरकार के इशारे पर चल रही है। उनके शब्दों में, “अगर SIR लागू हुआ तो जनता का गुस्सा फूट पड़ेगा, क्योंकि यह वोटरों की चोरी का अभियान है।” दरअसल, बिहार और असम में SIR के दौरान हुई अनियमितताओं ने यह शक और गहरा कर दिया है कि आयोग अब “स्वतंत्र संस्था” नहीं, बल्कि बीजेपी की रणनीतिक इकाई बन गया है। तो क्या आयोग लोकतंत्र की रक्षा कर रहा है — या सत्ताधारी दल के लिए रास्ता साफ़ कर रहा है?
ममता बनर्जी — संघर्ष की प्रतीक और सत्ता के अहंकार की चुनौती
ममता बनर्जी की पहचान भारतीय राजनीति में अडिग, निर्भीक और जुझारू नेता के रूप में रही है।
वे न झुकती हैं, न डरती हैं — और यही बात बीजेपी को सबसे ज़्यादा खलती है। ममता ने साफ कहा है कि “बंगाल को बिहार नहीं बनने दूँगी।” उन्होंने बिहार के SIR घोटाले का ज़िक्र करते हुए कहा कि यह अभियान फर्जी वोटर हटाने के नाम पर विपक्षी इलाकों से असली वोटरों को हटाने की साजिश है। दीदी ने प्रशासनिक अफसरों को चेताया कि वे केंद्र या आयोग के दबाव में आए बिना संविधान की मर्यादा में काम करें। ममता का यह रवैया बताता है कि वह न केवल सत्ता की चालों से वाकिफ़ हैं, बल्कि उन्हें बेनकाब करने का साहस भी रखती हैं।
बीजेपी और आयोग का अदृश्य गठजोड़ — लोकतंत्र की जड़ों पर हमला
बीजेपी का रुख अब खुलकर सामने आ चुका है। वह SIR को “सुधार” नहीं, बल्कि “सफाई” बताती है — और यह सफाई उन वोटरों की है जो उसे सत्ता में आने से रोकते हैं। आयोग की चुप्पी और उसके तेज़ प्रशासनिक आदेश यह दिखाते हैं कि कहीं न कहीं यह प्रक्रिया राजनीतिक दिशा में ढाली जा रही है। अगर ऐसा है, तो यह लोकतंत्र की आत्मा के साथ खिलवाड़ है। वोट की ताक़त जनता की है, न कि सरकार या आयोग की। और जब संस्थाएँ सत्ता की गोद में बैठ जाएँ, तो लोकतंत्र जनता के हाथ से फिसलने लगता है। बंगाल आज उसी खतरनाक मोड़ पर खड़ा है।
जनता की अदालत — दीदी बनाम आयोग की जंग में असली फैसला किसका?
अब यह जंग सिर्फ राजनीतिक नहीं रही — यह जनता के भरोसे की परीक्षा बन चुकी है। ममता बनर्जी ने साफ कह दिया है कि वे पीछे नहीं हटेंगी, चाहे उन्हें सड़कों पर उतरना पड़े या अदालत का दरवाज़ा खटखटाना पड़े। उनका यह संघर्ष दरअसल हर उस नागरिक का संघर्ष है जो अपने मताधिकार को बचाना चाहता है। दूसरी तरफ बीजेपी और आयोग की जोड़ी यह साबित करने में लगी है कि “कानून उनके साथ है।” लेकिन असली सवाल तो यही है —क्या कानून जनता के लिए है या सत्ता के लिए? क्या आयोग संविधान के लिए काम करेगा या सियासत के लिए? और आखिर में — क्या दीदी की चलेगी या आयोग की?
लोकतंत्र की रक्षा का आखिरी मोर्चा बंगाल
बंगाल की यह लड़ाई अब केवल एक राज्य का मामला नहीं रही। यह देश के हर उस नागरिक के लिए चेतावनी है जो वोट देने को अपना अधिकार समझता है। अगर SIR जैसी प्रक्रियाएँ राजनीतिक हथियार बन गईं, तो आने वाले चुनावों में जनता की भूमिका सिर्फ तमाशबीन की रह जाएगी। ममता बनर्जी ने यह जंग इसलिए शुरू की है कि लोकतंत्र को “सूची संशोधन” की आड़ में “सत्ता संशोधन” बनने से रोका जाए।
उन्होंने दिखाया है कि लोकतंत्र में प्रतिरोध भी पूजा है — और जनता की आवाज़ सबसे बड़ा विधान। अब देखना यह है कि इस संघर्ष में कौन टिकता है — दीदी की अडिग हिम्मत, या आयोग की संदिग्ध चुप्पी? बंगाल फैसला करेगा कि लोकतंत्र बचेगा या “चोरी” फिर होगी…?