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काबुल की नई दस्तक — भारत-अफगान रिश्तों से जलभुन गया पाकिस्तान

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काबुल, इस्लामाबाद, दिल्ली 11 अक्टूबर 2025

नई शुरुआत — जब दिल्ली में उतरे तालिबान के मंत्री: कूटनीति की सर्जिकल स्ट्राइक

नई दिल्ली ने हाल ही में जो कदम उठाया है, वह न केवल ऐतिहासिक है बल्कि भू-राजनीति की बिसात पर एक निर्णायक मोहरा साबित हुआ है। तालिबान सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री को औपचारिक वार्ता के लिए भारत में आमंत्रित करना केवल एक राजनयिक औपचारिकता नहीं थी; यह भारत-अफगानिस्तान संबंधों के एक बिल्कुल नए और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण युग की शुरुआत का प्रतीक है। अफगानिस्तान, जिसने पिछले दो दशकों में विदेशी हस्तक्षेप और आंतरिक राजनीतिक उथल-पुथल की कई लहरें देखी हैं, अब भारत के साथ मिलकर स्थिरता, विकास और एक सम्मानजनक साझेदारी की दिशा में आगे बढ़ रहा है। दिल्ली में तालिबान मंत्री की उपस्थिति ने पूरे विश्व को एक स्पष्ट और साहसिक संदेश दिया है — भारत अब अफगानिस्तान को केवल एक मानवीय सहायता प्राप्त करने वाले देश के रूप में नहीं, बल्कि क्षेत्रीय स्थिरता सुनिश्चित करने वाले एक रणनीतिक सहयोगी के रूप में देख रहा है। लेकिन इस साहसिक मुलाकात की खबर ने जैसे ही अंतरराष्ट्रीय मीडिया में जगह बनाई, इस्लामाबाद से लेकर रावलपिंडी तक के सैन्य और राजनीतिक गलियारों में एक तीव्र बेचैनी की लहर दौड़ गई। पाकिस्तान, जो दशकों से खुद को अफगानिस्तान का “एकमात्र रक्षक” और “रणनीतिक संरक्षक” मानता था, अब यह महसूस कर रहा है कि उसकी वर्षों पुरानी और ख़ूनी “रणनीतिक गहराई” की थ्योरी भारत की सूक्ष्म और प्रभावी कूटनीति के सामने पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी है।

अफगानों का भारत प्रेम — सदियों पुराना रिश्ता, नफरत की दीवारों से परे

अफगानिस्तान और भारत के बीच के रिश्ते किसी क्षणभंगुर राजनीतिक समझौते पर आधारित नहीं हैं, बल्कि ये इतिहास, संस्कृति, व्यापार, शिक्षा और पारस्परिक विश्वास की गहरी जड़ों में समाए हुए हैं। महान बामियान की बुद्ध प्रतिमाओं से लेकर काबुल के जीवंत बाजारों की मिठास और बॉलीवुड के प्रति अफगानी जनता के प्रेम तक, अफगान अवाम का दिल हमेशा से भारत के सबसे करीब रहा है। इस रिश्ते की सबसे बड़ी पूंजी यह है कि भारत ने न तो कभी अफगानिस्तान की आंतरिक राजनीति में बलपूर्वक हस्तक्षेप किया और न ही उसकी पावन धरती को क्षेत्रीय या अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए एक अस्थिर अड्डा बनाने की कोशिश की।

 इसके विपरीत, जब पूरी दुनिया अफगानिस्तान से दूरी बना रही थी और उसे उसके हाल पर छोड़ रही थी, तब भारत ने वहाँ सड़कों का निर्माण किया, शैक्षणिक संस्थान खोले, अस्पताल बनाए और लोकतांत्रिक आस्था के प्रतीक संसद भवन तक का निर्माण किया। यही कारण है कि आज भी, अफगान नागरिक, चाहे वे किसी भी समूह से संबंधित हों, गर्व से यह कहते हैं — “भारत ने हमें हथियार नहीं, बल्कि उम्मीद दी।” यह अटूट और निस्वार्थ रिश्ता किसी सरकार या विचारधारा पर नहीं, बल्कि सीधे लोगों के दिलों पर टिका है — और यही तथ्य पाकिस्तान की गहन और आंतरिक जलन का सबसे बड़ा कारण है।

पाकिस्तान की बौखलाहट — क्योंकि अब काबुल उसकी कठपुतली नहीं सुनता

जैसे ही तालिबान के मंत्री नई दिल्ली पहुँचे, पाकिस्तान के मीडिया, सुरक्षा प्रतिष्ठान और राजनीतिक विश्लेषकों के हलकों में घबराहट और गुस्से का माहौल साफ़ देखा गया। पाकिस्तानी विश्लेषकों ने इसे तुरंत ही “भारत की अफगानिस्तान में वापसी” बताया और इस बात पर ज़ोर दिया कि इस कदम से पाकिस्तान की “रणनीतिक संपत्ति” की पूरी कहानी अब खत्म हो रही है। दरअसल, पाकिस्तान की मूलभूत समस्या यह है कि वह अभी भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि तालिबान अब उसके पूर्ण नियंत्रण में नहीं रहा है। पाकिस्तान को यह भ्रम था कि काबुल की नई सत्ता पूरी तरह से उसकी “कठपुतली” बनकर काम करेगी और भारत को दूर रखेगी, लेकिन तालिबान ने अपने आर्थिक और राजनयिक हितों की गंभीरता को समझते हुए भारत जैसे क्षेत्रीय शक्ति से नजदीकी बढ़ाने का एक अत्यंत व्यावहारिक और स्वतंत्र फैसला लिया है।

 यह याद रखना ज़रूरी है कि भारत ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में 3 बिलियन डॉलर से अधिक का निवेश किया है, जो बाँधों, सड़कों और शिक्षा परियोजनाओं के रूप में वहाँ की जनता के लिए एक स्थायी विरासत है। जबकि पाकिस्तान ने वहाँ केवल आतंक और अस्थिरता के बीज बोए। इसलिए, जब तालिबान का प्रतिनिधिमंडल भारत आता है, तो यह केवल एक मामूली कूटनीतिक झटका नहीं है, बल्कि यह पाकिस्तान की दशकों पुरानी अफगान नीति की पूर्ण और अपमानजनक पराजय है।

भारत की रणनीति — संवाद, सहायता और स्थिरता की त्रिवेणी

भारत ने तालिबान के साथ प्रत्यक्ष संवाद का रास्ता खुला रखकर एक अत्यंत दूरदर्शी और व्यावहारिक रणनीति अपनाई है। इस नीति का मूल आधार यह है कि भारत का जुड़ाव “अफगान जनता के साथ” है, न कि काबुल की तात्कालिक शासन व्यवस्था की विचारधारा के साथ। भारत हमेशा से ही इस सिद्धांत पर अडिग रहा है कि अफगानिस्तान की आंतरिक स्थिरता पूरे दक्षिण एशिया क्षेत्र की सुरक्षा और समृद्धि से अविभाज्य रूप से जुड़ी हुई है।

 दूतावास को फिर से खोलना, लगातार मानवीय सहायता भेजना और अब मंत्रीस्तरीय वार्ता की शुरुआत करना — यह सब भारत की दीर्घकालिक क्षेत्रीय दृष्टि का एक सुसंगत हिस्सा है। भारत अच्छी तरह जानता है कि काबुल में दोस्ती का एक छोटा सा बीज बोना इस्लामाबाद में गहरी राजनीतिक और सैन्य नींद उड़ा देगा, और ठीक यही हुआ भी है। भारत ने बिना किसी आक्रामक मुद्रा के, सिर्फ कूटनीतिक सलीके से पाकिस्तान के रणनीतिक किले में दरार डाल दी है।

पाकिस्तान का खोखला हक़ — अब काबुल में नहीं चलती ‘रणनीतिक गहराई’

पाकिस्तान दशकों से अपनी संपूर्ण “अफगान नीति” को केवल और केवल अपने सैन्य और सुरक्षा हितों से जोड़ता रहा है, लेकिन अब समय बदल गया है। तालिबान नेतृत्व ने स्वयं सार्वजनिक रूप से यह स्पष्ट कर दिया है कि — “हम अपने संबंध किसी तीसरे देश के दबाव में आकर तय नहीं करेंगे।” यह स्पष्ट और आत्म-निर्भर बयान पाकिस्तान की अफगान नीति के ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ है।

 अब काबुल में भारत की बढ़ती और सम्मानजनक मौजूदगी का सीधा मतलब है — पाकिस्तान का अपनी “पश्चिमी सीमा” से भी सुरक्षा और नियंत्रण खोना। चीन-पाकिस्तान-तालिबान की जो त्रिकोणीय और आक्रामक रणनीति कभी पाकिस्तान के सैन्य जनरलों की सबसे बड़ी शान थी, वह आज भारत की “कूटनीति की सर्जिकल स्ट्राइक” से राजनीतिक रूप से ढह गई है।

 भारत की शांति नीति, पाकिस्तान की बौखलाहट का प्रमाण

भारत और अफगानिस्तान के बीच पनप रहे ये नए रिश्ते सिर्फ दो देशों के राजनयिक संबंध नहीं हैं, बल्कि ये सभ्यताओं के पुनर्मिलन और मानवीय मूल्यों की विजय की कहानी हैं। जहाँ भारत पुनर्निर्माण, विकास और स्थायी शांति का प्रतीक बनकर उभरा है, वहीं पाकिस्तान अब भी आतंकवाद, विनाश और अस्थिरता की पुरानी और हारी हुई राजनीति में उलझा हुआ है। भारत ने यह सशक्त रूप से दिखा दिया है कि बिना कोई गोली चलाए, सिर्फ कूटनीति की शक्ति और निस्वार्थ सहायता के दम पर ही क्षेत्र की भू-राजनीतिक सीमाएँ बदली जा सकती हैं — और काबुल में हुई यह मुलाकात इसका सबसे ताज़ा और सबसे स्पष्ट सबूत है। 

पाकिस्तान की तीव्र बौखलाहट अब उसकी वर्षों पुरानी नीतिगत पराजय का खुला प्रमाण है। भारत ने यह बाजी जीत ली है — बिना किसी सैन्य टकराव के, केवल आपसी विश्वास और रिश्तों की अटूट ताकत से। “काबुल से आई नई हवा ने इस्लामाबाद के भ्रम के शीशमहल हिला दिए हैं — और अब पूरे दक्षिण एशिया में भारत की दूरदर्शी डिप्लोमेसी की गूंज सुनाई दे रही है।”

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