नई दिल्ली, 7 अक्टूबर 2025
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आगामी बिहार विधानसभा चुनाव से पहले राज्य की मतदाता सूची से लाखों मतदाताओं के नाम हटाए जाने के मामले में भारतीय चुनाव आयोग (ECI) के प्रति कड़ा असंतोष व्यक्त किया है। मुख्य रूप से, 3.66 लाख मतदाताओं के नाम सूची से हटाए जाने को लेकर उठे विवाद पर, सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को दो दिन के अंदर इन सभी हटाए गए मतदाताओं का पूरा विवरण और नाम हटाने के कारणों को प्रस्तुत करने का निर्देश दिया है।
यह निर्देश न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमल्या बागची की मुख्य पीठ द्वारा सुनवाई के दौरान दिया गया, जिसने साफ तौर पर कहा कि मतदाता सूची में किसी भी प्रकार की त्रुटि या मनमानी “लोकतंत्र के मूल अधिकार” पर सीधा आघात है और ऐसी प्रक्रियाओं में पूर्ण पारदर्शिता अनिवार्य है।
अदालत ने आयोग की इस दलील पर भी असंतोष जताया कि उन्हें हटाए गए मतदाताओं की ओर से कोई औपचारिक शिकायत प्राप्त नहीं हुई है, कोर्ट ने जोर दिया कि “मतदाता अधिकार संवैधानिक अधिकार है, न कि तकनीकी गलती का परिणाम।” इस सख़्त रुख ने बिहार के चुनावी माहौल में एक बड़ा मुद्दा खड़ा कर दिया है, जिसकी अगली सुनवाई 9 अक्टूबर 2025 को होनी है।
मामले की पृष्ठभूमि और चुनाव आयोग की ‘स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन’ प्रक्रिया पर सवाल
यह पूरा मामला बिहार में इस वर्ष जून महीने में संचालित स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) प्रक्रिया के दौरान मतदाता सूची में किए गए व्यापक संशोधन से जुड़ा है। इस प्रक्रिया का उद्देश्य मतदाता सूची को अद्यतन (अपडेट) करना था, लेकिन इसके परिणामस्वरूप प्रारंभिक मसौदा सूची से लगभग 65 लाख नाम हटा दिए गए, जिसने विभिन्न जिलों में बड़े पैमाने पर राजनीतिक विवाद और सार्वजनिक आक्रोश को जन्म दिया।
हालाँकि, अंतिम सूची में यह संख्या घटकर 47 लाख रह गई, लेकिन याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में दायर अपनी याचिका में दावा किया कि 3.66 लाख मतदाता अभी भी ऐसे हैं जिनके नाम बिना किसी स्पष्ट और न्यायसंगत कारण के सूची से हटा दिए गए हैं। याचिका में आरोप लगाया गया कि SIR प्रक्रिया में “भेदभाव और मनमानी” बरती गई है।
कोर्ट ने सुनवाई के दौरान ECI के वकील से स्पष्टीकरण मांगते हुए तीखे सवाल पूछे, जैसे कि “क्या जो नाम बाद में जोड़े गए हैं, वे उन्हीं हटाए गए लोगों के हैं या बिल्कुल नए मतदाताओं के?” अदालत ने यह सवाल पूछकर सूची में नामों को हटाने और जोड़ने की प्रक्रिया की ईमानदारी और निष्पक्षता पर सवाल उठाया है, क्योंकि यदि हटाए गए लोगों के नाम वापस नहीं जोड़े गए हैं, तो यह सीधे तौर पर उनके मताधिकार के हनन का मामला बनता है।
राजनीतिक तनातनी और संवैधानिक अधिकारों पर कोर्ट का कड़ा रुख
सुप्रीम कोर्ट के इस हस्तक्षेप ने बिहार की राजनीति में पहले से ही चल रही तनातनी को और बढ़ा दिया है। विपक्षी दल, विशेषकर राजद, ने चुनाव आयोग की SIR प्रक्रिया पर सीधा आरोप लगाया है कि यह एक “सुनियोजित साजिश” है जिसके तहत जानबूझकर अल्पसंख्यक, प्रवासी मजदूरों और दलित मतदाताओं जैसे वर्गों के नाम बड़ी संख्या में हटाए गए हैं ताकि एक विशिष्ट राजनीतिक दल को लाभ पहुँचाया जा सके। राष्ट्रीय जनता दल के प्रवक्ताओं ने स्पष्ट रूप से कहा कि “लाखों गरीब और बेघर लोग इस प्रक्रिया में गायब कर दिए गए हैं,” जो लोकतंत्र से मताधिकार छीनने जैसा है।
दूसरी ओर, बीजेपी ने इन आरोपों का खंडन करते हुए कहा है कि “चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संस्था है, और उसने यह कार्य पूरी पारदर्शिता से किया है,” और विपक्ष के पास अपने आरोपों को सिद्ध करने के लिए कोई ठोस साक्ष्य नहीं हैं। इन राजनीतिक आरोपों के बीच, सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी कि “मतदाता सूची में किसी भी प्रकार की असमानता या गलती लोकतंत्र के मूल अधिकार पर चोट है” इस मामले को एक संवैधानिक महत्व प्रदान करती है। आगामी 6 नवंबर और 11 नवंबर को होने वाले बिहार विधानसभा चुनावों से ठीक पहले कोर्ट का यह हस्तक्षेप, लोकतंत्र की रीढ़ मानी जाने वाली मतदाता सूची की पवित्रता सुनिश्चित करने की दिशा में एक निर्णायक कदम हो सकता है।
आगे की राह और निष्कर्ष: 9 अक्टूबर को तय होगा चुनावी पारदर्शिता का भविष्य
फिलहाल सभी की निगाहें 9 अक्टूबर 2025 को होने वाली अगली सुनवाई पर टिकी हुई हैं। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को स्पष्ट चेतावनी दी है कि वे हटाए गए 3.66 लाख नामों की सटीक जानकारी और उसे हटाने का तर्कसंगत कारण प्रस्तुत करें। यदि चुनाव आयोग अगले दो दिनों में कोर्ट को संतुष्ट नहीं कर पाता है और इस पूरी प्रक्रिया में कोई बड़ी त्रुटि या मनमानी पाई जाती है, तो अदालत के पास SIR प्रक्रिया को “अवैध घोषित” करने और चुनाव आयोग को पूरी सूची की समीक्षा करने का आदेश देने जैसी बड़ी कार्रवाई करने का संवैधानिक अधिकार होगा।
सुप्रीम कोर्ट का यह हस्तक्षेप देश भर के लिए एक स्पष्ट संदेश है कि मतदाता सूची संशोधन का कार्य “संविधान के मूल भाव” के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए और मताधिकार किसी भी तरह की प्रशासनिक या तकनीकी खामी का शिकार नहीं हो सकता। अंततः, 9 अक्टूबर की सुनवाई ही यह तय करेगी कि बिहार के लाखों मतदाताओं का संवैधानिक अधिकार सुरक्षित रहेगा या नहीं, और चुनावी पारदर्शिता के मानक किस हद तक बरकरार रखे जा सकेंगे।