मुंबई, 16 सितम्बर 2025
2008 के मालेगांव बम धमाके से जुड़ा मामला वर्षों से राजनीतिक और सामाजिक बहस का केंद्र रहा है। इस केस में प्रज्ञा सिंह ठाकुर और लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित जैसे नाम शामिल रहे हैं, जिन्हें लंबे समय तक आतंकवाद और षड्यंत्र के आरोपों में अदालत का सामना करना पड़ा। लेकिन 31 जुलाई 2025 को विशेष NIA अदालत ने सभी सात आरोपियों को बरी कर दिया, यह कहते हुए कि उनके खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं हैं। इस फैसले के बाद पीड़ित परिवारों ने बरी के आदेश को चुनौती देते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया।
हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश श्री चंद्रशेखर और न्यायमूर्ति गौतम अंकद की पीठ ने बेहद अहम टिप्पणी की। अदालत ने साफ़ कहा कि यह दरवाज़ा हर किसी के लिए खुला नहीं हो सकता कि वह अपील लेकर सामने आ जाए। कोर्ट ने सवाल उठाया कि जिन परिवारों के लोग इस धमाके में मारे गए थे, क्या उन्हें ट्रायल के दौरान गवाह के तौर पर पेश किया गया था? जब अदालत को बताया गया कि निसार अहमद जैसे लोग, जिनके बेटे की जान गई थी, गवाह नहीं बने थे, तो कोर्ट ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि अगर आपका बेटा मारा गया था, तो आपको गवाह होना चाहिए था। इस टिप्पणी से यह स्पष्ट हो गया कि अदालत अपील करने के अधिकार को केवल उन्हीं तक सीमित देखना चाहती है जिनकी कानूनी हैसियत ट्रायल प्रक्रिया में दर्ज हो।
याचिकाकर्ताओं की दलील है कि इस केस की जांच अधूरी और दोषपूर्ण रही, और इसी कारण आरोपियों को बरी किया गया। उनका कहना है कि विस्फोट के पीछे गहरी साजिश थी जिसे नज़रअंदाज़ कर दिया गया। वहीं दूसरी तरफ NIA अदालत का कहना था कि सिर्फ “शक” या अधूरे साक्ष्य किसी को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। विशेष अदालत का मानना था कि अभियोजन पक्ष ठोस सबूत लाने में नाकाम रहा और न्याय की दृष्टि से ऐसे मामलों में आरोपियों को दोषमुक्त करना ही उचित है।
बॉम्बे हाईकोर्ट का यह तर्क न्यायिक प्रक्रिया की गहराई और सीमाओं को सामने लाता है। अदालत ने यह संदेश दिया है कि भावनात्मक अपील या जनभावनाओं का दबाव किसी आरोपी की दोषसिद्धि या अपील की वैधता का आधार नहीं हो सकता। अगर कोई पीड़ित परिवार अपील करना चाहता है तो उसे पहले ट्रायल का हिस्सा बनना होगा, गवाह के तौर पर दर्ज होना होगा, और कानूनी तौर पर अपनी स्थिति मजबूत करनी होगी। इस मामले में अदालत ने यह भी संकेत दिया कि भविष्य में बरी के खिलाफ अपील दर्ज करने वालों की कतार लंबी न हो जाए, इसलिए यह सीमा तय करना ज़रूरी है।
यह फैसला एक व्यापक राजनीतिक और सामाजिक संदर्भ भी रखता है। मालेगांव धमाका लंबे समय तक भाजपा और कांग्रेस के बीच आरोप-प्रत्यारोप का विषय रहा है। कांग्रेस और विपक्षी दल इस केस को हिंदुत्व आतंकवाद के सबूत के तौर पर पेश करते रहे, वहीं भाजपा और उसके समर्थक इसे “झूठे केस” का उदाहरण बताते रहे। ऐसे में हाईकोर्ट का यह बयान कि “हर कोई अपील नहीं कर सकता” केवल कानूनी प्रक्रिया की सीमा नहीं बल्कि उस सियासी विमर्श पर भी असर डालता है जिसमें अक्सर पीड़ित परिवारों के नाम और भावनाओं का इस्तेमाल राजनीतिक हथियार की तरह किया जाता है।
अंततः बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस केस में एक और स्पष्टता दी है— न्याय केवल अदालत में मौजूद ठोस साक्ष्यों और गवाहों के आधार पर होगा। अपील का अधिकार सार्वभौमिक नहीं है, बल्कि यह उन्हीं तक सीमित रहेगा जो ट्रायल का हिस्सा बने हों या जिनकी भूमिका कानूनी प्रक्रिया में परिभाषित हो। मालेगांव जैसा मामला, जिसने वर्षों तक देश की राजनीति, समाज और मीडिया में तूफान मचाया, अब एक बार फिर इस फैसले के बाद चर्चा में है। यह फैसला बताता है कि चाहे मामला कितना भी संवेदनशील क्यों न हो, अदालतें विधिक दायरे से बाहर जाकर केवल जनभावना के आधार पर निर्णय नहीं ले सकतीं।
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