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सितारे ज़मीन पर: संवेदना, संघर्ष और समर्पण का सिनेमाई दस्तावेज़

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कहानी जो जीतने से ज़्यादा जोड़ने की बात करती है

‘सितारे ज़मीन पर’ केवल एक फिल्म नहीं, बल्कि आमिर खान द्वारा रची गई एक ऐसी कहानी है जो समाज के हाशिए पर खड़े लोगों को केंद्र में रखती है। यह फिल्म एक जिद्दी, आत्मकेंद्रित बास्केटबॉल कोच गुलशन की कहानी है, जो अपने गुस्से, अतीत और अहंकार में उलझा हुआ है। उसे कोर्ट द्वारा दिव्यांग बच्चों की बास्केटबॉल टीम को कोचिंग देने का आदेश मिलता है। यह शुरुआत में एक दंड जैसा लगता है, लेकिन धीरे-धीरे वही टीम उसे बदल देती है। स्पेनिश फिल्म Campeones पर आधारित यह रीमेक भारतीय सामाजिक संदर्भ में उतना ही सशक्त और भावनात्मक बन पड़ा है, जितना मूल फिल्म अपने देश में था। यहां जीत की कहानी नहीं, स्वीकृति, आत्मसम्मान और सामाजिक समावेशन की गहराई है।

दिव्यांगता नहीं, दृष्टिकोण की बात है

इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत है — उसका नज़रिया। यहां दिव्यांग बच्चों को सहानुभूति के पात्र नहीं, बल्कि आत्मबल से भरे, सपनों से लदे व्यक्तित्वों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। फिल्म यह बताने में सफल होती है कि असली समस्या किसी की अक्षमता नहीं, बल्कि समाज की दृष्टिहीनता है। आमिर खान ने अभिनय में जिस सहजता से इन बच्चों के साथ संवाद स्थापित किया है, वह स्क्रीन से परे दिल तक पहुंचती है। नवोदित कलाकारों ने अपने किरदारों को सिर्फ निभाया नहीं, बल्कि जीया है। एक-एक दृश्य में उनके संघर्ष, भावनाएं और जिद्द दिखती है, जो दर्शकों को भीतर से झकझोर देती है।

संवेदनशील अभिनय और निर्देशकीय संतुलन

जहां आमिर खान ने कोच गुलशन की भूमिका में अपने अभिनय की परिपक्वता दिखाई, वहीं निर्देशक आर. एस. प्रसन्ना ने विषय की संवेदनशीलता के साथ कोई समझौता नहीं किया। फिल्म की कहानी मनोरंजन के साथ साथ विचार को भी आमंत्रित करती है। यह कॉमिक मोमेंट्स से भरपूर है, लेकिन हर हंसी एक सीख के साथ आती है। निर्देशक का यह संतुलन दुर्लभ है — न भावनात्मकता का अतिरेक, न कॉमेडी का हल्कापन। यह वह फिल्म है जो मन को छूती है, लेकिन आंखों में ज़रूरत से ज़्यादा आंसू नहीं भरती। सुधा मूर्ति जैसी हस्तियों ने भी फिल्म को ‘सोच बदलने वाली प्रस्तुति’ कहा, जो इस बात का संकेत है कि यह फिल्म केवल दिल को नहीं, दिमाग को भी प्रभावित करती है।

बॉक्स ऑफिस पर भावनाओं की जीत, भले आंकड़े धीमे हों

‘सितारे ज़मीन पर’ ने बॉक्स ऑफिस पर धीमी लेकिन स्थिर शुरुआत की। पहले सप्ताहांत में करीब ₹93–96 करोड़ की कमाई हुई और भारत में फिल्म ने 13 दिनों में ₹132.9 करोड़ का आँकड़ा पार कर लिया। हालांकि सप्ताह के दिनों में गिरावट आई, लेकिन सप्ताहांत पर इसका असर कम रहा। यह साफ संकेत है कि फिल्म वर्ड-ऑफ-माउथ पर चल रही है — यानी जो दर्शक इसे देख रहे हैं, वही दूसरों को इसे देखने की सलाह दे रहे हैं। विदेशी बाज़ारों में भी फिल्म ने अच्छी प्रतिक्रिया प्राप्त की और कुल मिलाकर इसका वैश्विक कलेक्शन ₹200 करोड़ के करीब पहुंच चुका है। इन आंकड़ों से यह ज़रूर साफ हो गया कि आज भी दर्शक संवेदनशील और समाज से जुड़ी फिल्मों को देखना पसंद करते हैं, बशर्ते उन्हें सही ढंग से प्रस्तुत किया जाए।

सामाजिक असर और विमर्श का नया द्वार

फिल्म समाज के उस पहलू को दर्शाती है जिसे अक्सर पर्दे पर या तो नज़रअंदाज़ किया जाता है, या ग्लैमराइज कर दिया जाता है। लेकिन यहां दिव्यांगता को ना तो दया की निगाह से देखा गया है, ना किसी असाधारणता की तरह पेश किया गया है। यह सामान्य को सामान्य रूप में स्वीकार करने की कोशिश है — एक ऐसा प्रयास जो भारतीय समाज में बहुत ज़रूरी है। फिल्म एक सरल लेकिन तीव्र सवाल उठाती है — “कौन तय करता है कि सामान्य क्या है?” यह फिल्म स्वीकृति और आत्मसम्मान के नाम पर बनी एक चुपचाप गूंजती चीख है, जिसे सुना जाना चाहिए।

सितारे ज़मीन पर नहीं, समाज की आँखों पर हैं

‘सितारे ज़मीन पर’ उन दुर्लभ फिल्मों में से एक है जो केवल सिनेमा नहीं, एक सामाजिक दस्तावेज़ बन जाती हैं। यह फिल्म हमें एहसास दिलाती है कि हर इंसान चाहे वह किसी भी स्थिति में हो — एक सितारा है, जिसे केवल समझ और स्वीकार्यता की रोशनी चाहिए। आमिर खान और उनकी टीम ने सिनेमा के ज़रिए जो योगदान दिया है, वह शायद किसी कानून, नीति या योजना से अधिक गहरा और स्थायी है। यह फिल्म हमें दर्शक से ज़्यादा इंसान बनने की सलाह देती है, और यही इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है।

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