भारत की सभ्यता ने वेद, उपनिषद, महाकाव्य और लोक साहित्य के ज़रिए ज्ञान को पीढ़ियों तक पहुँचाया। पर आज का युवा पढ़ने से कतराने लगा है। वह किताबों के साथ बैठने से पहले ही थक जाता है, पर घंटों सोशल मीडिया पर बिना पलक झपकाए स्क्रॉल कर सकता है। यह बदलाव सिर्फ़ आदतों का नहीं, बल्कि सोच की दिशा का है। किताबें अब बोझ लगने लगी हैं, जबकि स्क्रीन आकर्षण का केंद्र बन चुकी है। इससे केवल साहित्यिक रस नहीं खोता, बल्कि तर्क, आलोचना, और चिंतनशीलता की शक्ति भी कमजोर पड़ने लगती है।
स्क्रीन का मोह: त्वरित सुख बनाम दीर्घकालिक गहराई
आज का युवा त्वरित संतोष चाहता है — एक क्लिक में मनोरंजन, एक मिनट में खबर, और तीस सेकंड की रील में जीवन का दर्शन। किताबें इसका विपरीत हैं — वे ध्यान, धैर्य और समय की मांग करती हैं। लेकिन यह ध्यान ही वह अभ्यास है जो सोचने, समझने और आत्ममंथन की शक्ति देता है। स्क्रीन युवाओं को उत्तेजित करती है, किताबें उन्हें स्थिर बनाती हैं। स्क्रीन पर ज्ञान सरकता है, किताबों में ज्ञान उतरता है। यह फर्क समझना बेहद जरूरी है, क्योंकि रील्स की लय में अगर विचार डूब गए, तो भविष्य में केवल सतही सोच ही रह जाएगी।
पढ़ाई बनाम पढ़ना: परीक्षा की तैयारी तो है, पर विचार की भूख नहीं
दुर्भाग्य यह है कि आज पढ़ाई करना तो मजबूरी है, पर पढ़ना (for pleasure or growth) विलासिता माना जाने लगा है। युवा सिर्फ़ परीक्षा पास करने के लिए पढ़ते हैं, किताब से दोस्ती करने के लिए नहीं। वे नोट्स याद करते हैं, लेकिन विचारों को आत्मसात नहीं करते। इस प्रक्रिया में ज्ञान केवल ‘इनपुट’ बनकर रह जाता है, जो परीक्षा के बाद ‘डिलीट’ हो जाता है। किताबें वह निवेश हैं, जो न केवल करियर बनाती हैं, बल्कि व्यक्तित्व का भी निर्माण करती हैं। यह सोच जितनी जल्दी युवाओं में लौटे, उतना अच्छा।
डिजिटल टेक्नोलॉजी: दोस्त या दुश्मन?
यह कहना गलत होगा कि तकनीक केवल नुकसान पहुंचा रही है। असल बात है — उसका अनुशासित और विवेकपूर्ण उपयोग। आज ऑडियोबुक्स, ई-पुस्तकें, पीडीएफ, और डिजिटल लाइब्रेरी जैसे संसाधन मौजूद हैं। पर क्या हम उनका उपयोग कर रहे हैं, या सिर्फ़ इंस्टाग्राम पर ‘बुक-रीडिंग रील्स’ बनाकर पढ़ने का नाटक कर रहे हैं?
अगर युवा चाहें, तो डिजिटल को किताबों का साथी बना सकते हैं — दुश्मन नहीं। किंडल, नेटगैलि, गूगल बुक्स, प्रोजेक्ट गुटेनबर्ग जैसे प्लेटफॉर्म आज भी सैकड़ों क्लासिक और समसामयिक किताबें मुफ्त उपलब्ध कराते हैं। बस ज़रूरत है चयन की — और अनुशासन की।
सोचने की शक्ति और भाषा की गरिमा किताबों से ही आती है
जब युवा नियमित रूप से पढ़ते हैं, तो उनके शब्दकोश में गहराई आती है। वे बेहतर लिखते हैं, प्रभावशाली बोलते हैं, और समाज के मुद्दों को संवेदना और विवेक से समझते हैं। किताबें भाषा नहीं सिखातीं — वे दृष्टिकोण देती हैं। वे चरित्र निर्माण करती हैं, विचारों को धार देती हैं, और संवाद को गरिमा प्रदान करती हैं। जिन युवाओं में पढ़ने की आदत मजबूत होती है, वे कभी भी सिर्फ़ सूचना के गुलाम नहीं बनते — वे विवेकवान नागरिक बनते हैं।
अगर किताबें छूट गईं, तो जड़ें सूख जाएंगी
किताबें केवल ज्ञान का ज़रिया नहीं हैं — वे सभ्यता की स्मृति हैं। अगर हम उन्हें सिर्फ़ अलमारी की शोभा बना देंगे, तो आने वाली पीढ़ियाँ केवल सतही, तेज़ और बिखरी हुई होंगी। युवाओं को फिर से किताबों से जोड़ना होगा — जैसे वे अपने दोस्तों से जुड़े रहते हैं। क्योंकि स्क्रीन ‘डिस्ट्रैक्ट’ करती है, किताबें ‘कनेक्ट’ करती हैं — और यही फर्क उन्हें भविष्य में मज़बूत बनाएगा। किताबें केवल ज्ञान नहीं देतीं, वे सोचने की आज़ादी, आत्म-मंथन की शक्ति और व्यक्तित्व में स्थिरता लाती हैं।