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वक्फ संशोधन अधिनियम पर सुप्रीम कोर्ट की ऐतिहासिक सुनवाई पूरी: संविधान, आस्था और न्याय के त्रिकोण पर फैसला सुरक्षित

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24 मई, नई दिल्ली 

न्याय की कसौटी पर वक्फ अधिनियम

भारत की सर्वोच्च अदालत में वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2024 को लेकर अप्रैल और मई 2025 में जो कानूनी मंथन हुआ, वह देश के न्यायिक इतिहास में एक ऐतिहासिक अध्याय बन गया। इस लंबी और गहन सुनवाई में भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्ष आत्मा, अल्पसंख्यकों के अधिकार, प्रशासनिक पारदर्शिता और विधायिका की सीमाओं पर सवाल उठाए गए। मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गावई की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 16 अप्रैल से 24 मई 2025 तक इस कानून की संवैधानिकता की पड़ताल करते हुए आठ प्रमुख सत्रों में सुनवाई की। न्याय की निष्पक्षता, विधिक संतुलन और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा का यह प्रयास संपूर्ण भारत की निगाहों का केंद्र बन गया।

शुरुआत: याचिकाकर्ताओं की आपत्तियां और संवैधानिक सवाल

16 और 17 अप्रैल को सुनवाई की शुरुआत में याचिकाकर्ताओं ने वक्फ (संशोधन) अधिनियम के तीन प्रावधानों को असंवैधानिक करार देते हुए उन्हें चुनौती दी। पहला—‘वक्फ-बाय-यूज़र’ का खात्मा, जो कि उस भूमि को वक्फ मानने की प्रक्रिया थी जो वर्षों से धार्मिक या सामाजिक उद्देश्यों में उपयोग हो रही हो। दूसरा—वक्फ बोर्डों में गैर-मुस्लिम सदस्यों की नियुक्ति, जिसे उन्होंने धार्मिक स्वायत्तता के खिलाफ बताया। तीसरा—सरकारी भूमि को वक्फ घोषित करने की प्रक्रिया, जो उनके अनुसार राज्य के अधिकारों को सीमित करता है। वरिष्ठ वकीलों कपिल सिब्बल, राजीव धवन और अभिषेक मनु सिंघवी ने इन मुद्दों को संविधान के अनुच्छेद 25, 26 और 14 के उल्लंघन के रूप में प्रस्तुत किया।

सरकार की दलील और यथास्थिति का वादा

केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत को भरोसा दिलाया कि सुनवाई पूरी होने तक किसी भी प्रकार की प्रशासनिक कार्रवाई नहीं की जाएगी। इसका अर्थ यह था कि वक्फ संपत्तियों की वर्तमान स्थिति में कोई बदलाव नहीं होगा—कोई नई अधिसूचना जारी नहीं की जाएगी, कोई नियुक्ति नहीं की जाएगी, और न ही किसी ज़मीन को डिनोटिफाई किया जाएगा। यह वादा ‘Status Quo’ के रूप में दर्ज हुआ, जिससे कोर्ट ने अस्थायी राहत प्रदान की और सुनवाई आगे बढ़ी।

25 अप्रैल: सुनवाई के दायरे की सीमाएं तय

इस तारीख को कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण आदेश पारित किया, जिसमें स्पष्ट किया गया कि सुनवाई को तीन मुख्य बिंदुओं तक सीमित रखा जाएगा: वक्फ-बाय-यूज़र की समाप्ति, बोर्ड में गैर-मुस्लिमों की भागीदारी, और सरकारी ज़मीनों की वक्फ पहचान। साथ ही, कोर्ट ने कहा कि अब कोई नई याचिका स्वीकार नहीं की जाएगी। इस फैसले का उद्देश्य था कि सुनवाई भटकने न पाए और संविधान की मूल चुनौती के इर्द-गिर्द ही रहे।

15 मई: अंतरिम राहत पर सख्त रुख

इस दिन सुप्रीम कोर्ट ने एक सख्त संकेत दिया कि वह अंतरिम आदेश तभी पारित करेगा जब याचिकाकर्ता बेहद ठोस और गंभीर संवैधानिक आधार प्रस्तुत करें। यह रुख संसद की विधायी स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए न्यायिक संतुलन बनाए रखने की दिशा में था। अदालत ने कहा कि जब तक यह साबित नहीं होता कि कानून संविधान का स्पष्ट उल्लंघन करता है, तब तक उसे वैध माना जाएगा। यह भारतीय न्यायशास्त्र में presumption of constitutionality का मजबूत उदाहरण था।

20 मई: धर्म, आस्था और मोक्ष पर वैचारिक बहस

इस दिन की बहस तीन घंटे चली और बेहद विचारशील रही। CJI बी.आर. गावई ने वक्फ को लेकर यह टिप्पणी की कि यह केवल इस्लाम तक सीमित नहीं है—दान, मोक्ष और पुण्य की अवधारणा सभी धर्मों में पाई जाती है। उन्होंने वक्फ की तुलना हिंदू धर्म में दान और मोक्ष की परंपराओं से की, जिससे स्पष्ट हुआ कि यह केवल धार्मिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक विषय भी है। केंद्र ने इसे एक धर्मनिरपेक्ष प्रशासनिक व्यवस्था बताया, जबकि याचिकाकर्ताओं ने इसे धार्मिक आस्था में हस्तक्षेप बताया।

21–22 मई: अंतिम बहस और अंतरिम आदेश सुरक्षित

इन दो दिनों में याचिकाकर्ताओं ने कहा कि वक्फ-बाय-यूज़र को हटाना गरीब मुसलमानों के अधिकारों पर सीधा हमला है, क्योंकि पीढ़ियों से लोग जिस ज़मीन को धार्मिक और सामाजिक उपयोग में ला रहे थे, उसे अब कानूनी मान्यता नहीं मिलेगी। दूसरी ओर, सरकार ने जवाब दिया कि यह कदम पारदर्शिता, जवाबदेही और भूमि भ्रष्टाचार को रोकने के लिए उठाया गया है। अदालत ने इस विषय को धर्म और शासन के टकराव की बजाय, संविधान के भीतर संतुलन साधने की प्रक्रिया माना। अंततः न्यायालय ने अंतरिम आदेश सुनवाई के लिए सुरक्षित रख लिया।

24 मई: सुनवाई का समापन और फैसले का इंतजार

24 मई को अंतिम सुनवाई में अदालत ने घोषणा की कि वह सभी प्रस्तुत दलीलों और तथ्यों का विश्लेषण करने के बाद अपना फैसला सुरक्षित रखती है। साथ ही, उसने यह भी स्पष्ट किया कि जब तक निर्णय नहीं आ जाता, केंद्र सरकार ‘यथास्थिति’ बनाए रखेगी। यह न्यायपालिका की परिपक्वता और संवेदनशीलता को दर्शाता है, जिसमें कोई भी निर्णय जल्दबाज़ी में नहीं लिया गया, बल्कि गहराई से विचार कर अंतिम निर्णय की दिशा तय की गई।

 संविधान सर्वोपरि, न्याय प्रतीक्षित

सुप्रीम कोर्ट में वक्फ अधिनियम को लेकर चली यह लंबी और ऐतिहासिक सुनवाई भारतीय न्याय प्रणाली की निष्पक्षता, विवेकशीलता और लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व का जीता-जागता प्रमाण है। इस सुनवाई ने यह सिद्ध किया कि भारत में कोई भी कानून संविधान से ऊपर नहीं है, और न्यायपालिका हर विधायी कदम को संवैधानिक दृष्टि से परखने में सक्षम है। मुस्लिम समुदाय, कानूनी विशेषज्ञ और समूचा देश अब सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निर्णय की प्रतीक्षा कर रहा है, जो न केवल धार्मिक स्वतंत्रता बल्कि विधिक संतुलन का भी निर्धारण करेगा। यह निर्णय भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला को और मजबूत करेगा।

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