भूमिका: वक्फ संपत्ति का मूल उद्देश्य और वर्तमान संकट
भारत में वक्फ संपत्तियों का इतिहास सैकड़ों वर्षों पुराना है, जो मुस्लिम समाज की धार्मिक, शैक्षणिक, सामाजिक और मानवतावादी जरूरतों को पूरा करने के लिए दान में दी गई थीं। इन संपत्तियों का उद्देश्य ज़कात और इबादत से जुड़ा था — यानी इन्हें मस्जिदों, मदरसों, कब्रिस्तानों, अनाथालयों, विद्यालयों, अस्पतालों और गरीबों के कल्याण के लिए इस्तेमाल किया जाना था। मगर आज वक्फ संपत्ति की जो स्थिति है, वह एक मानवीय और कानूनी त्रासदी है। देश के कई हिस्सों में इन पवित्र और सार्वजनिक हित से जुड़ी ज़मीनों पर धार्मिक ठेकेदारों, भूमाफिया और राजनीतिक संरक्षणप्राप्त तत्वों का कब्ज़ा हो चुका है।
यह कब्ज़ा केवल आर्थिक या ज़मीनी विवाद नहीं है — यह दरअसल धार्मिक आस्था, समुदाय के हक़ और सामाजिक न्याय की नींव पर चोट है। दुर्भाग्यवश, कई बार खुद वक्फ बोर्ड के ही कुछ अधिकारियों की मिलीभगत से या उनकी निष्क्रियता के कारण ये कब्ज़े संभव हुए हैं। पारदर्शिता का अभाव, डिजिटल रिकॉर्ड का न होना, और सरकारों की अनिच्छा इस समस्या को और गहराती है।
कब्ज़ा सिर्फ जमीन पर नहीं, समाज की उम्मीदों पर है
वक्फ की ज़मीनें किसी व्यक्ति विशेष की नहीं होतीं, बल्कि यह पूरे समाज की साझी विरासत होती हैं। ये ज़मीनें उन जरूरतमंदों की थीं जिनकी आवाज़ कभी सत्ता तक नहीं पहुँचती। जब इन संपत्तियों पर कब्ज़ा होता है तो वह सिर्फ जमीन पर नहीं होता — वह कब्ज़ा होता है एक बच्चे के स्कूल जाने के हक पर, एक मरीज की इलाज पाने की उम्मीद पर, एक विधवा के आश्रय पर और समाज के हाशिए पर पड़े तबके की गरिमा पर।
भारत के कई शहरों में वक्फ की बहुमूल्य संपत्तियाँ आज शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, अवैध रिहायशी इमारतों, धर्मस्थलों के निजी विस्तार, या नेताओं के ‘प्रोजेक्ट्स’ में तब्दील हो चुकी हैं। सवाल यह है कि आखिर मुस्लिम समाज के लिए छोड़ी गई ये सम्पत्तियाँ कैसे कुछ मुट्ठीभर लोगों की जागीर बन गईं? क्यों एक बुज़ुर्ग महिला को अपने पुश्तैनी वक्फ पर बने मकान को बचाने के लिए कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटने पड़ते हैं? ये वो सवाल हैं जिनका जवाब सिर्फ कानून से नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना और नेतृत्व की ईमानदारी से ही मिल सकता है।
राजनीति, संरक्षण और खामोशी — सबसे बड़ा गठजोड़
वक्फ संपत्ति विवाद को अगर एक लाइन में समझना हो, तो यह ‘धार्मिक आवरण में ढका हुआ राजनीतिक भ्रष्टाचार’ है। जिनके हाथ में इन संपत्तियों की निगरानी होनी चाहिए थी — वक्फ बोर्ड, राज्य सरकारें, स्थानीय पुलिस और मजहबी नेतृत्व — उन्हीं में से कई लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कब्जेदारों को संरक्षण देते हैं। यह संरक्षण धर्म के नाम पर चुप्पी, डर का माहौल और दस्तावेज़ों की जालसाज़ी के सहारे खड़ा किया गया है।
कई मामलों में देखा गया है कि गरीब या अनपढ़ लोग जिनकी पुश्तैनी जमीन वक्फ की थी, उन्हें यह तक नहीं मालूम कि जमीन अब सरकारी रिकॉर्ड में किसी और के नाम पर दर्ज हो गई है। RTI और कोर्ट का सहारा लेने वालों को या तो धमकियां मिलती हैं, या उन्हें “काफिर”, “फिरकापरस्त”, या “बगावती” करार देकर समाज से अलग कर दिया जाता है। ऐसी स्थितियाँ एक लोकतांत्रिक, संवैधानिक और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए शर्मनाक हैं।
समाधान की राह: कानून, तकनीक और जागरूक नेतृत्व
इस संकट का समाधान केवल किसी एक दिशा से नहीं आ सकता। इसके लिए कानून की सख्ती, तकनीक की पारदर्शिता और नेतृत्व की ईमानदारी — तीनों का तालमेल ज़रूरी है। हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा लाया गया वक्फ संशोधन विधेयक 2024 एक सकारात्मक कदम है। यह कानून वक्फ संपत्तियों के डिजिटल रजिस्ट्रेशन, तीसरे पक्ष द्वारा ऑडिट, लीज़ और किराएदारी की पारदर्शिता, तथा बोर्ड की जवाबदेही सुनिश्चित करता है।
लेकिन किसी भी कानून का असर तब तक नहीं होगा जब तक उसे ज़मीन पर ईमानदारी से लागू नहीं किया जाए। हर जिले में वक्फ सतर्कता समिति, स्थानीय निगरानी मंडल, और जन प्रतिनिधित्व आधारित शिकायत प्रकोष्ठ की स्थापना होनी चाहिए। धार्मिक संगठनों और बुद्धिजीवियों को भी अब खुलकर सामने आना होगा — वे खामोश नहीं रह सकते। वक्फ का मतलब “सेवा” है, ना कि “संपत्ति की हड़प”।
वक्फ का सम्मान — समाज की आत्मा का सम्मान
वक्फ संपत्ति केवल इमारतों और भूखंडों की नहीं है — यह हमारी आस्थाओं, सामाजिक जिम्मेदारियों और गरीबों की उम्मीदों की अमानत है। इसके साथ हो रहा अन्याय पूरे भारतीय मुस्लिम समाज की आत्मा पर हमला है। वक्फ की रक्षा सिर्फ एक समुदाय का नहीं, बल्कि पूरे देश का दायित्व है क्योंकि यह भारत की संविधानिक समरसता और सामाजिक न्याय की आत्मा को बनाए रखने का प्रश्न है।
अब समय आ गया है कि समाज एकजुट होकर बोले:
“वक्फ की ज़मीनें समाज की सेवा के लिए हैं, किसी के कब्जे के लिए नहीं। धर्म के नाम पर ज़मीन पर डाका अब और बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।”