भारत एक सहिष्णुता और विविधता का देश रहा है, जहाँ सदियों से विभिन्न धर्म, जातियाँ, भाषाएँ और समुदाय एक साथ रहते आए हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जिस प्रकार से कुछ विशेष क्षेत्रों में जनसंख्या संतुलन को धर्म के आधार पर रणनीति के तहत बदला जा रहा है, उसे सामान्य सामाजिक या आर्थिक परिवर्तन नहीं कहा जा सकता। इसे एक सुनियोजित प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसे आज कई लोग ‘डेमोग्राफिक जिहाद’ कह रहे हैं। यह शब्द भले ही तीखा प्रतीत होता हो, लेकिन इसके पीछे जो वास्तविकता है, वह और भी ज्यादा तीखी और भयावह है। इस ‘जिहाद’ का उद्देश्य किसी धार्मिक समूह के विरुद्ध नहीं, बल्कि उस रणनीति के खिलाफ है, जो भारत के भीतर एक नरम इस्लामी विस्तारवाद को बढ़ावा देती है – जिसमें जनसंख्या विस्फोट, बहु-विवाह, वोट बैंक निर्माण, और सीमावर्ती जिलों में सांस्कृतिक घेराबंदी के ज़रिए भारत के मूलभूत सामाजिक ढाँचे को कमजोर किया जा रहा है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश, सीमावर्ती उत्तराखंड, असम, बंगाल और बिहार के कई जिले इसके स्पष्ट उदाहरण हैं, जहाँ कुछ दशकों पहले तक हिन्दू समाज बहुसंख्यक था, लेकिन आज वे अपने ही गाँवों, शहरों और बाज़ारों में अल्पसंख्यक बनते जा रहे हैं। यह परिवर्तन केवल जनसंख्या वृद्धि की दर से नहीं, बल्कि उसमें छुपी हुई आक्रामकता, विस्तारवाद और धार्मिक कट्टरता के एजेंडे से संचालित है। जब किसी एक धर्म विशेष की जनसंख्या किसी भौगोलिक क्षेत्र में सुनियोजित रूप से बढ़ाई जाती है, और वहाँ के संसाधनों, प्रशासनिक निर्णयों, शिक्षा संस्थानों और स्थानीय राजनीति को नियंत्रित करने की रणनीति बनाई जाती है, तब वह एक डेमोग्राफिक हथियार बन जाता है – जो किसी बम से भी ज़्यादा खतरनाक है। ऐसे क्षेत्र धीरे-धीरे ‘नो गो जोन’ बन जाते हैं, जहाँ दूसरे धर्म के लोगों को रहना, व्यापार करना या धार्मिक आयोजन करना भी खतरे से खाली नहीं होता।
इसी के समानांतर चल रहा है ‘लैंड जिहाद’ – जो ज़मीन के ज़रिए धार्मिक कब्ज़ा और सांस्कृतिक उपनिवेशवाद फैलाने का तरीका है। भारत के अनेक हिस्सों में अचानक किसी पेड़ के नीचे चादर डाल दी जाती है, फिर वहाँ ‘बाबा’ के नाम से मजार बन जाती है, और फिर उस मजार के चारों ओर अवैध निर्माण, लाउडस्पीकर और धार्मिक जलसे शुरू हो जाते हैं। प्रशासन अगर रोकने जाए, तो ‘धार्मिक भावना आहत’ होने का शोर मचाया जाता है, और धीरे-धीरे उस स्थान पर स्थानीय हिंदू समुदाय का आना-जाना बंद हो जाता है। यह कब्ज़ा सिर्फ जमीन का नहीं होता, यह कब्ज़ा स्थानीयता, संस्कृति और जन-संख्या मनोविज्ञान का होता है। वर्षों बाद यही ज़मीन वक्फ संपत्ति घोषित कर दी जाती है, और वक्फ कानून की आड़ में उस पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। यही नहीं, वक्फ अधिनियम 1995 के तहत वक्फ बोर्ड के पास ऐसी अधिकार शक्ति है कि वह किसी जमीन को एकतरफा अपनी घोषित कर सकता है, और न्यायालय में उस पर आपत्ति करने का अधिकार भी सीमित है।
यह स्थिति भारत जैसे लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और सहिष्णु राष्ट्र के लिए अत्यंत गंभीर संकट का कारण बन चुकी है। जब किसी स्थान पर जनसंख्या का धार्मिक संतुलन बिगड़ता है, तो वहाँ की स्थानीय व्यवस्था, न्याय, सुरक्षा, भाषा, पहनावा, भोजन, यहाँ तक कि मंदिर, त्योहार और परंपराएं भी असुरक्षित हो जाती हैं। यही कारण है कि आज हरिद्वार, मुजफ्फरनगर, नूह, देवबंद, मालदा, किशनगंज, और बरपेटा जैसे क्षेत्रों में सांस्कृतिक तनाव, अपराध और कट्टरता बढ़ती जा रही है। जहाँ पहले दुर्गा पूजा सार्वजनिक स्थलों पर होती थी, आज वहाँ अनुमति नहीं मिलती। जहाँ पहले लोक गायन और रामलीला होती थी, आज वहाँ धार्मिक नारेबाज़ी, सड़कों पर नमाज़ और मजारों की बेतहाशा संख्या बढ़ गई है। यह भारत की मूल पहचान को धीरे-धीरे नष्ट करने की प्रक्रिया है — एक “धीमा लेकिन सुनियोजित घातक परिवर्तन”, जिसे अब नज़रअंदाज़ करना आत्मघाती होगा।
सबसे दुखद पहलू यह है कि भारत की राजनीति का एक बड़ा वर्ग इस खतरे से या तो अनजान है, या जानबूझकर मौन है। वोट बैंक की राजनीति ने उन्हें इतना मजबूर कर दिया है कि वे धार्मिक कट्टरता और सांस्कृतिक कब्ज़े को सामाजिक न्याय का नाम देकर राष्ट्रहित के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। न्यायपालिका और नौकरशाही भी कई बार इस विषय में असहाय प्रतीत होती है, क्योंकि वक्फ बोर्ड जैसी संस्थाओं को विशेष अधिकार प्राप्त हैं, और मीडिया में इस विषय पर बात करना “सांप्रदायिक” कहकर खारिज कर दिया जाता है। यह मौन और राजनीतिक पक्षपात ही आज भारत के सांस्कृतिक अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है। यदि कश्मीर से कश्मीरी पंडितों को उनकी ही ज़मीन से बेदखल किया जा सकता है, तो भारत के किसी भी हिस्से में यह प्रयोग दोहराया जा सकता है — और कई जगहों पर यह हो भी रहा है।
इस चुनौती से निपटने के लिए भारत को अब नैतिक, राजनीतिक और कानूनी साहस दिखाने की ज़रूरत है। केंद्र सरकार को चाहिए कि वह वक्फ अधिनियम में संशोधन, समान नागरिक संहिता और जनसंख्या नियंत्रण कानून को लागू करे। राज्यों को चाहिए कि वे GIS मैपिंग के माध्यम से सभी धार्मिक स्थलों, मजारों, कब्रगाहों और मंदिरों का डिजिटल रजिस्टर बनाएं, और अवैध कब्जों को हटाने के लिए समयबद्ध कार्रवाई करें। स्थानीय समाज को भी आगे आकर यह जिम्मेदारी लेनी होगी कि वह अपने क्षेत्र की जमीन, संस्कृति और पहचान की रक्षा करे। यह लड़ाई केवल सरकार की नहीं — यह हर नागरिक की जिम्मेदारी है।
यह स्पष्ट है कि भारत एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ उसका सांस्कृतिक अस्तित्व, भौगोलिक अखंडता और जनसंख्या संरचना एक साथ प्रभावित हो रही है। डेमोग्राफिक और लैंड जिहाद जैसे विषय केवल एक समुदाय के मुद्दे नहीं हैं, बल्कि पूरे राष्ट्र की अस्मिता, सुरक्षा और भविष्य की दिशा तय करने वाले गंभीर प्रश्न हैं। अब यदि हम आंख मूंदे रहे, तो अगली पीढ़ियाँ हमें कभी माफ नहीं करेंगी।