भारत का मुस्लिम समाज आज जिस नेतृत्व शून्यता का शिकार है, वह केवल राजनीतिक परिदृश्य की उपेक्षा का नतीजा नहीं है, बल्कि सामाजिक, वैचारिक और ऐतिहासिक स्तर पर एक गहरे आत्म-भ्रम, दिशाहीनता और आत्मालोचना की कमी का परिणाम है। एक समय था जब भारतीय मुसलमानों के पास मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे विद्वान, बहुभाषी, राष्ट्रनिष्ठ, शिक्षावादी और दूरदर्शी नेता थे, जिनकी दृष्टि केवल कौम तक सीमित नहीं थी, बल्कि देश, संविधान, शिक्षा और सामाजिक समरसता की ओर थी। आज़ाद न केवल इस्लामी ज्ञान के ज्ञाता थे, बल्कि वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी सेनानी थे, जिनकी सोच में इस्लाम और भारतीयता के बीच कोई टकराव नहीं था। वे मानते थे कि भारतीय मुसलमानों का भविष्य भारत की मुख्यधारा से जुड़कर ही सुरक्षित रहेगा। उन्होंने पाकिस्तान की अवधारणा का दृढ़ता से विरोध किया, क्योंकि वे जानते थे कि मज़हबी राष्ट्र की संकीर्णता, मुस्लिम समाज को एक गहरे अंधेरे में धकेल देगी। दुर्भाग्यवश, स्वतंत्रता के बाद मुस्लिम समाज ने मौलाना आज़ाद के विचारों को अपनाने के बजाय, तुष्टीकरण की राजनीति और भावनात्मक डर फैलाने वाले नेताओं के पीछे चलना शुरू किया।
यह नेतृत्व संकट केवल राजनीतिक मंच तक सीमित नहीं रहा, बल्कि सामाजिक ढांचे में भी घुसपैठ करता चला गया। मदरसों में शिक्षा देने वाले मौलवी हों या धार्मिक मंचों पर भाषण देने वाले पंथनायक — इनकी बातों में आधुनिकता, वैज्ञानिक सोच, महिला अधिकार, रोजगार, स्वास्थ्य, तकनीकी विकास जैसे किसी विषय की कोई चर्चा नहीं होती। इनका सारा ध्यान केवल परंपरा, मज़हब, फतवे और विरोध में बँधा रहता है। ऐसा नेतृत्व समाज को आधुनिकता से जोड़ने के बजाय, उसे पिछड़ेपन में बनाए रखने के लिए ज़िम्मेदार रहा है। नतीजतन, मुस्लिम समुदाय शिक्षा, रोजगार, उद्यमिता और सरकारी सेवा के हर क्षेत्र में पिछड़ता चला गया। मुस्लिम महिला अधिकारों की बात करना तो जैसे ‘गुनाह’ बन गया — चाहे वह तीन तलाक हो, हलाला, या संपत्ति के अधिकार। जब मुस्लिम महिलाओं ने न्याय के लिए आवाज़ उठाई, तो मौजूदा नेतृत्व उनके विरोध में खड़ा हो गया — यह दिखाता है कि यह नेतृत्व समाज के साथ नहीं, बल्कि केवल अपने वर्चस्व के लिए जीता है।
राजनीति के क्षेत्र में भी मुस्लिम नेतृत्व की स्थिति शोचनीय है। तथाकथित सेक्युलर दलों में मुस्लिम चेहरे केवल टोकन की तरह मौजूद रहते हैं — भाषण में उर्दू बोलने, टोपी पहनने और ईद मुबारक कहने तक सीमित। वे न तो नीति निर्माण में भागीदारी कर पाते हैं, न ही अपनी कौम के असली मुद्दे उठा पाते हैं। दूसरी ओर, मज़हबी पहचान पर आधारित दलों ने मुस्लिम राजनीति को और संकुचित कर दिया है — जो केवल डर, गुस्सा और नफ़रत पर आधारित भाषणों से तालियाँ तो बटोरते हैं, लेकिन समाधान कुछ नहीं देते। उग्र बयानबाज़ी और ‘हम बनाम वे’ की मानसिकता ने मुस्लिम युवाओं को भी भ्रमित कर दिया है। वे सोचते हैं कि व्यवस्था उनके खिलाफ है, जबकि सच्चाई यह है कि व्यवस्था में भागीदारी के लिए मेहनत, योग्यता और सशक्त नेतृत्व की आवश्यकता है — जो उन्हें नहीं मिल रहा।
एक और अहम पहलू है — वैकल्पिक, राष्ट्रनिष्ठ, प्रगतिशील मुस्लिम नेतृत्व का न उभर पाना। वैज्ञानिक, डॉक्टर, प्रोफेसर, सामाजिक कार्यकर्ता, महिला उद्यमी — इन सबमें आज कई मुस्लिम चेहरे हैं जो बदलाव लाना चाहते हैं, लेकिन वे इस्लामी जमातों और राजनीतिक दलों द्वारा या तो उपेक्षित किए जाते हैं या उन्हें ‘कम मुस्लिम’ कहकर खारिज कर दिया जाता है। समाज ने नेतृत्व की परिभाषा ही ‘मौलवी’ और ‘राजनीतिक वक्ता’ तक सीमित कर दी है। नतीजा यह है कि जो लोग राष्ट्र और संविधान के साथ मुसलमानों को जोड़ना चाहते हैं, उन्हें समाज का सहयोग नहीं मिलता, जबकि जो उन्हें कट्टरता और अलगाव की ओर ले जाते हैं, वे ‘मसीहा’ बना दिए जाते हैं। जब नेतृत्व का चयन विवेक से नहीं, बल्कि भावुकता से होता है — तो समाज भटकता ही है।
आज आवश्यकता है कि भारतीय मुसलमान आत्मावलोकन करें। उन्हें यह सोचना होगा कि क्या केवल भावनात्मक मुद्दों पर चलकर, वे अपने बच्चों का भविष्य सुधार सकते हैं? क्या केवल सड़कों पर उतरकर, पत्थर फेंककर या सोशल मीडिया पर गुस्सा निकालकर, वे समाज में सम्मान पा सकते हैं? नहीं। उन्हें चाहिए कि वे मौलाना आज़ाद, डॉ. कलाम, डॉ. जाकिर हुसैन, बीएम हेडगेवार के राष्ट्र निर्माण की सोच को अपनाएँ — जहाँ मज़हब, राष्ट्र, संविधान और मानवता — सब एक साथ चल सकते हैं। उन्हें धार्मिक नेतृत्व से आगे बढ़कर सामाजिक नेतृत्व खड़ा करना होगा — जिसमें महिला हो, युवा हो, वैज्ञानिक हो, लेखक हो, उद्यमी हो, और राष्ट्र के प्रति आस्था रखने वाले बुद्धिजीवी हों।
यदि मुस्लिम समाज को वाकई सशक्त होना है, तो उसे पुराने नेतृत्व ढांचे से बाहर निकलकर नए नेतृत्व की खोज करनी होगी। वह नेतृत्व जो डर नहीं फैलाए, बल्कि उम्मीद पैदा करे। जो ‘हम बनाम वे’ की भाषा न बोले, बल्कि ‘हम सब भारतवासी हैं’ की सोच को जन्म दे। वह नेतृत्व जो मस्जिद की मिम्बर से नहीं, स्कूल, अस्पताल, प्रयोगशाला और अदालत से उभरे। कयादत बदलेगी तभी कौम उठेगी — वरना इतिहास यही दोहराता रहेगा कि मुसलमानों की आबादी तो बढ़ रही है, लेकिन उनकी हैसियत घटती जा रही है।