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जम्मू-कश्मीर की कारीगरी: आत्मा की भाषा, हाथों की विरासत”

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हस्तकला की आत्मा: परंपरा की सांस लेती कलाएं

जम्मू-कश्मीर की हस्तकला केवल वस्तुएं नहीं बनाती, वह समय के साथ बुनी गई एक जीवंत परंपरा है। सदियों से कश्मीर की वादियों में कारीगरों की उंगलियों ने धागों, लकड़ियों, धातुओं और रंगों को आत्मा दी है। यहां की कला फारसी, तुर्क, तिब्बती और स्थानीय परंपराओं का संगम है। चाहे वो पश्मीना शॉल की महीनता हो, कालीन की गांठों में बसी महीन कढ़ाई, या पेपर माचे की लहरों में छिपी चित्रकारी — हर कृति में कश्मीर की संस्कृति, सहनशीलता, और सूफ़ियाना रूह झलकती है। यहां की हर चीज़ में एक ख़ामोश ख़ूबसूरती है जो शोर नहीं करती, लेकिन नज़र हटने भी नहीं देती।

शॉल, कालीन और कपड़े: ऊन से रचा हुआ सौंदर्य

कश्मीर के शॉल और कालीन विश्व प्रसिद्ध हैं — लेकिन यह पहचान एक दिन में नहीं बनी। पश्मीना शॉल, जो लद्दाखी बकरी के अति महीन ऊन से बनता है, कश्मीर की ठंडी वादियों और गरम दिल की निशानी है। एक शुद्ध पश्मीना शॉल को हाथ से कताई, रंगाई और बुनाई करके तैयार करने में महीनों लगते हैं। इसी प्रकार “कानी” शॉल — जिसमें हर रंग के धागे को बुनते हुए महीन डिज़ाइन रचा जाता है — एक उत्कृष्ट उदाहरण है कि कला केवल कल्पना नहीं, श्रम का सौंदर्य है। कश्मीरी कालीन (hand-knotted carpets) अपने डिज़ाइन, गांठों की बारीकी (1600 से 3600 knots per sq. inch), और प्राकृतिक रंगों के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं। श्रीनगर, गांदरबल, बारामुला जैसे क्षेत्रों में आज भी हज़ारों कारीगर दिन-रात इन बुनावटों को जिंदा रखे हुए हैं।

लकड़ी, धातु और पेपर माचे: घाटी के हाथों की कारीगरी

कश्मीर की हस्तकला केवल कपड़ों तक सीमित नहीं है। अखरोट की लकड़ी पर की गई नक्काशी (wood carving) दुनिया की सबसे बारीक शिल्पकला में गिनी जाती है। यह नक्काशी न केवल फर्नीचर पर, बल्कि घरों के खिड़कियों, दरवाज़ों और छतों पर भी दिखाई देती है। इसी प्रकार, तांबे और पीतल पर की गई नक्काशी (naqashi), खासकर धार्मिक बर्तनों और सजावटी सामानों में, स्थानीय संस्कृति का स्थायी हिस्सा है। ‘पेपर माचे’ — जो रद्दी कागज़ से सजावटी फूलदान, डिब्बे, और खिलौने बनाता है — कश्मीर की सबसे रंगीन कलाओं में से एक है। एक-एक टुकड़ा कई बार परतों में बनाया और फिर महीनों तक हाथ से पेंट किया जाता है। आज भी पेपर माचे में फारसी शैली के डिज़ाइन, फूल-पत्तियां और सूफ़ी प्रतीक देखे जा सकते हैं।

आर्थिक महत्त्व: लाखों की आजीविका और करोड़ों का कारोबार

आज कश्मीर की कारीगरी का व्यवसायीय पक्ष उतना ही महत्वपूर्ण है जितनी उसकी कला। लगभग 4.5 लाख से अधिक कारीगर सीधे-सीधे इस उद्योग से जुड़े हैं, जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं और ग्रामीण परिवार हैं। 2024-25 में जम्मू-कश्मीर से कुल हस्तशिल्प निर्यात ₹1800 करोड़ के पार चला गया, जिसमें पश्मीना, कालीन, लकड़ी की नक्काशी और पेपर माचे प्रमुख उत्पाद रहे। ODOP (One District One Product) योजना के अंतर्गत कश्मीर के अलग-अलग जिलों को विशिष्ट शिल्प के रूप में पहचान दी गई है — जैसे श्रीनगर के लिए कालीन, गांदरबल के लिए कानी शॉल, और बारामुला के लिए लकड़ी शिल्प। यह केवल व्यापार नहीं, बल्कि स्थानीय पहचान को विश्व मंच पर स्थापित करने का प्रयास है।

वैश्विक मंच पर कश्मीर की कला: सांस्कृतिक सॉफ़्ट पावर

कश्मीर की कारीगरी अब भारत की सॉफ़्ट पावर का प्रतीक बन रही है। अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, UAE, जापान जैसे देशों में “Made in Kashmir” का लेबल विश्वसनीयता, कला और नैतिक व्यापार का संकेत बन चुका है। GI टैग के अंतर्गत पश्मीना, कानी, कालीन, पेपर माचे को अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त हो चुकी है। अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों, डिप्लोमैटिक गिफ्ट्स और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स (Amazon Karigar, Etsy, FabIndia आदि) पर अब कश्मीरी उत्पादों की मांग तेज़ी से बढ़ रही है। डिज़ाइन नवाचार के साथ-साथ ब्लॉकचेन आधारित प्रमाणीकरण, क्यूआर कोड वाले प्रमाणित उत्पाद, और ग्लोबल ट्रेंड के अनुसार मॉडर्न शिल्प ने इस उद्योग को युवाओं से भी जोड़ा है।

परंपरा को जीवित रखना एक राष्ट्रीय उत्तरदायित्व

कश्मीर की कारीगरी कश्मीरियत की आत्मा और भारत की सांस्कृतिक चेतना का आभूषण है। यह उद्योग केवल वस्त्र या शिल्प नहीं बनाता — यह पीढ़ियों को जोड़ता है, समुदायों को रोज़गार देता है, और भारत को वैश्विक कला मानचित्र पर प्रतिष्ठित करता है। ज़रूरत है कि सरकार, बाज़ार, डिज़ाइन संस्थान और स्वयं समाज कारीगरों को सिर माथे पर बिठाएं, ताकि यह विरासत न केवल जीवित रहे, बल्कि वैश्विक पहचान का स्थायी स्तंभ बन सके।

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