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किरन रिजिजू के बयान पर सियासी तूफान, ओवैसी ने कहा अधिकार कोई खैरात नहीं

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नई दिल्ली, 8 जुलाई 2025 —

देश में अल्पसंख्यकों की स्थिति और अधिकारों को लेकर एक बार फिर सियासत गरमा गई है। केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरन रिजिजू द्वारा दिए गए बयान — “भारत में अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों की तुलना में ज्यादा सुविधाएं मिलती हैं” — पर AIMIM के प्रमुख और हैदराबाद से सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने तीखा पलटवार किया है। ओवैसी ने कहा है कि “अल्पसंख्यकों को जो कुछ मिलता है, वह सरकार की ‘चैरिटी’ नहीं बल्कि संविधान प्रदत्त अधिकार हैं। भारत किसी राजा की जागीर नहीं है, जहां नागरिकों को अधिकार ‘दया’ से दिए जाते हों।”

रिजिजू ने हाल ही में एक सार्वजनिक बयान में कहा था कि भारत दुनिया के उन चंद देशों में है जहां अल्पसंख्यकों को विशेष दर्जा और योजनाएं दी जाती हैं, जबकि कई अन्य देशों में बहुसंख्यक समाज ही सभी संसाधनों पर नियंत्रण रखता है। उन्होंने यह भी कहा कि भारत के अल्पसंख्यक खुद को सौभाग्यशाली समझें क्योंकि उन्हें कई ऐसे लाभ मिलते हैं जो बहुसंख्यकों को भी नहीं मिलते। इस बयान को लेकर सोशल मीडिया और राजनीतिक गलियारों में हलचल मच गई।

इस पर प्रतिक्रिया देते हुए ओवैसी ने कहा, “यह कहना कि भारत के अल्पसंख्यकों को ज्यादा कुछ मिल रहा है, एक क्रूर मज़ाक है। जब सरकार ने मौलाना आज़ाद फेलोशिप बंद कर दी, प्री-मेट्रिक स्कॉलरशिप खत्म कर दी, और पोस्ट-मेट्रिक और मेरिट-कम-मीन्स छात्रवृत्तियों का बजट आधा कर दिया, तब अल्पसंख्यकों को क्या मिला? सिर्फ अपमान, भेदभाव और असुरक्षा की भावना।” उन्होंने यह भी कहा कि वक्फ संशोधन के ज़रिए अब मुसलमानों के धार्मिक और सामाजिक संस्थानों में भी बाहरी हस्तक्षेप किया जा रहा है, जो उनके अधिकारों का सीधा उल्लंघन है।

ओवैसी ने यह भी सवाल उठाया कि यदि अल्पसंख्यकों को वाकई में इतनी “सुरक्षा” और “विशेष सुविधा” मिल रही है, तो क्यों उनकी बस्तियों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव है? क्यों मुसलमानों की शैक्षणिक भागीदारी दिन-ब-दिन गिरती जा रही है? क्यों नौकरियों में प्रतिनिधित्व कम होता जा रहा है? उन्होंने कहा, “आज का भारतीय मुसलमान अपने मां-बाप से भी पीछे खड़ा हुआ दिखता है। यह प्रगति नहीं, सामाजिक अवनति है।”

उन्होंने रिजिजू को यह भी याद दिलाया कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र है, जिसकी नींव न्याय, समानता और बंधुत्व जैसे संवैधानिक मूल्यों पर टिकी है। अल्पसंख्यकों को मिलने वाले अधिकार और योजनाएं कोई खैरात नहीं, बल्कि उसी संविधान का हिस्सा हैं, जिसे हर मंत्री और सांसद ने शपथ लेकर स्वीकारा है।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह बहस ऐसे समय उठी है जब देश कई राज्यों में विधानसभा चुनावों की तैयारी कर रहा है, और 2026 के आम चुनावों की नींव भी तैयार की जा रही है। ऐसे में अल्पसंख्यक वोट बैंक को साधने की कोशिश और उससे जुड़ी बयानबाज़ियां स्वाभाविक रूप से बढ़ेंगी। लेकिन इस बार का टकराव केवल बयानबाज़ी नहीं, बल्कि भारत की मूल आत्मा — उसके संवैधानिक मूल्यों — पर बहस को जन्म दे रहा है।

यह मुद्दा अब केवल एक मंत्री और एक सांसद के बीच की जुबानी जंग नहीं रहा। यह बहस है — अधिकार बनाम खैरात की, संविधान बनाम राजनीति की, और सबसे बढ़कर — नागरिकता के मायने की। देश देख रहा है कि क्या वह सचमुच सभी धर्मों, जातियों और समुदायों को बराबरी का अधिकार देने वाला भारत बना रहेगा, या फिर भेदभाव की गलियों में उलझता जाएगा।

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